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________________ जी वन की सारी समस्या इस एक बात में ही छिपी है कि जब तुम हल कर सकते हो तब तुम हल नहीं करते। जब बात को रोक देना आसान था तब तुम बढ़ाए चले जाते हो। और जब बात सीमा के बाहर निकल जाती है तब तुम्हें होश आता है। जब कुछ भी नहीं किया जा सकता तब तुम जागते हो। जब कुछ किया जा सकता था तब तुम आलस्य में पड़े विश्राम करते रहे। तब हजार समस्याएं इकट्ठी होती चली जाती हैं, उन समस्याओं में दबे तुम खंड-खंड, छितर-बितर जाते हो। फिर तुम्हारे जीवन-सूत्र का जो संबंध है, तुम्हारे भीतर की अंतरात्मा से जो तुम्हारी कड़ी है, उसका ओर-छोर खो जाता है। तब तो तुम छोटी सी समस्या भी हल करने में असमर्थ हो जाते हो। क्योंकि तुम्हारा मन एक विभ्रम हो जाता है, एक कनफ्यूजन। वहां इतनी समस्याओं का ढेर लगा पड़ा होता है। उन समस्याओं से दबे तुम सारी सामर्थ्य खो देते हो। तुम्हारा आत्मविश्वास भी तिरोहित हो जाता है। जो कुछ भी हल न कर पाया, वह कुछ हल कर सकेगा, यह भरोसा भी टूट जाता है। तुम समझने लगते हो कि अपने से हल होने वाला है ही नहीं। और एक बार ऐसी दीनता आ गई कि तुम्हारे पैर के नीचे की जमीन गई। फिर तो तुम उसे भी हल न कर पाओगे जिसे बच्चे हल कर लेते हैं। हल करने का भरोसा और श्रद्धा ही नष्ट हो गई। • इसलिए लाओत्से के इस सूत्र को बहुत गौर से समझना। यह ठीक तुम्हारे लिए है। इसके विपरीत ही तुम करते रहे हो। पहली दफा मुझे, जब कि लाओत्से का कोई पता भी न था, एक अजीब से आदमी से इस सूत्र की समझ मिली थी। मैं जब विश्वविद्यालय में विद्यार्थी था तो एक आदमी था गांव में जिसको लोग बन्नू पागल कहते थे। मैं उसमें आकर्षित हो गया था। क्योंकि मुझे वह पागल जैसा नहीं मालूम पड़ता था। भिन्न था; पागल जरा भी नहीं था। लोगों से उलटा था; पागल जरा भी नहीं था। लोगों को भला मैं पागल कह सकता, उस आदमी को पागल कहना मुश्किल था। क्योंकि उस जैसी प्रसन्नता। उसे कभी मैंने रोते, उदास नहीं देखा। उसकी चाल और उसकी मस्ती, सब खबर देती थीं कि कहीं भीतर वह आदमी गहरे में जड़ें जमा लिया है। धीरे-धीरे, वह साधारणतः किसी से बोलता नहीं था, बाद में जब मेरी उससे निकटता बढ़ गई और उसने मुझसे बोलना भी शुरू कर दिया और वह जब मेरी प्रतीक्षा भी करने लगा और जब हम दोनों सांझ-सुबह घूमने भी जाने लगे, तब मैंने उससे कहा कि लोगों से बोलते क्यों नहीं हो? तो उसने मुझे कहा, न बोलने में सुविधा है; बोले कि फंसे। बोलने में उपद्रव है। एक दिन सांझ घूमते वक्त वह अचानक रुक कर खड़ा हो गया और उसने एक चांटा अपने गाल पर मार लिया। तो मैंने उससे पूछा कि यह क्या किया? यह क्या हुआ? उसने कहा, जब बात रुक सकती हो तभी रोक देना ठीक है। मझे किसी के प्रति क्रोध आ रहा था। अब मैंने बांके बिहारीलाल जी को ठीक कर दिया। 359
SR No.002375
Book TitleTao Upnishad Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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