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________________ ताओ की भेंट श्रेयस्कर हैं 325 बुद्ध को ज्ञान हुआ पूर्णिमा की रात सब आकाश बड़े रहस्य से भरा था । महावीर को ज्ञान हुआ अमावस रात; सारा अस्तित्व सिर्फ तारों की टिमटिमाहट से भरा था। और यह जान कर मैं हैरान हुआ हूं कि अब तक दिन की दुपहरी में किसी को ज्ञान नहीं हुआ; कोई निर्वाण को उपलब्ध नहीं हुआ। कोई भी, जब भी यह घटना घटी है, रात में घटी है। सांयोगिक नहीं हो सकती, रात से कुछ गहरा संबंध है। रात में कुछ बात है जो दिन में नहीं है। रात में कुछ गीत है जो दिन में नहीं है। दिन बहुत साफ-सुथरा है। और वह परम रहस्य इतना साफ-सुथरा नहीं है। दिन में चीजें अलग-अलग हैं, पृथक-पृथक हैं। और वह सत्य अपृथक है, अभिन्न है। एक चीज से दूसरे से मिला है। रात की निबिड़ता में कुछ बात है जो निर्वाण के, परम मुक्ति के ज्यादा अनुकूल और निकट है। ध्यान रखना, रहस्य का अर्थ है वह एक काव्य है । कविता को पीना, स्वाद लेना; समझने की भर कोशिश मत करना। किसी ने पिकासो को पूछा कि तुम्हारे इन चित्रों का मतलब क्या है ? तो पिकासो ने कहा, चांद-तारों से क्यों नहीं पूछते कि तुम्हारा मतलब क्या है ? फूलों और वृक्षों से क्यों नहीं पूछते कि तुम्हारा मतलब क्या है ? पक्षियों से, पशुओं से क्यों नहीं पूछते कि तुम्हारा मतलब क्या है? मुझसे ही क्यों पूछते हो ? मेरे बचपन में एक कबाड़ी की दुकान से मैं एक कैमरा खरीद लाया। पांच रुपए में उसने दिया । अब पांच रुपए में कोई कैमरा मिलता है ? खाली डिब्बा ही था। किसी ने कूड़े-कबाड़े में फेंक दिया होगा। पर मुझे उसके चित्र बहुत पसंद आए। उससे जो चित्र आते थे वे बड़े रहस्यपूर्ण थे । उनमें पक्का पता लगाना ही कठिन था कि क्या है। वृक्ष उतारो, आदमी की शक्ल है, नदी है, पहाड़ है; कुछ पता न चलता। बारह चित्रों में आठ तो आते ही नहीं; चार ही आते। उनमें भी पक्का लगाना मुश्किल था । मैं ही जानता था कि यह क्या है; क्योंकि मैंने ही लिया था। बाकी दूसरा तो कोई पहचान ही नहीं सकता था। मेरी नानी थीं, वह मेरे कैमरे पर बहुत नाराज थीं । वह जब भी मुझे कैमरा लटकाए देखतीं, वह कहतीं, फेंको इस ठीकरे को ! कभी इससे कुछ आया है? क्यों इसको लटकाए फिरते हो फिजूल ? मेरे गांव में एक छोटा सा ही फोटोग्राफर है। वह भी अपना दिमाग ठोंक लेता था, जब मैं उसके पास अपने चित्र डेवलप करवाने ले जाता । वह कहता, क्यों मेहनत करवाते हैं? और क्यों पैसा खराब करते हैं? मेरी समझ में ही नहीं आता कि यह है क्या! लेंस खराब था। लेकिन चीजें बड़ी रहस्यपूर्ण हो जाती थीं । पक्का पता लगाना ही मुश्किल था कि क्या क्या है। एक धूमिलता आ जाती थी। लो आदमी की तस्वीर, वृक्ष की मालूम पड़े। लो वृक्ष की तस्वीर, आदमी समझ में आए। जैसे कभी-कभी आकाश में बादलों को देख कर होता है कि बादल बनते-बिगड़ते रहते हैं और तुम रूप-आकृतियां बनाते रहते हो। वे आकृतियां भी तुम्हें कल्पित करनी पड़ती हैं। परमात्मा का अर्थ है: यह सारा विराट वहां संयुक्त है। वहां चांद-तारे बन रहे हैं एक कोने पर; एक कोने पर चांद-तारे मिट रहे हैं। एक तरफ पृथ्वियां बस रही हैं, दूसरी तरफ विनष्ट हो रही हैं। एक तरफ सूरज जनम रहा है, दूसरी तरफ सूरज अस्त हो रहा है। एक तरफ प्रकाश है, एक तरफ अंधकार है। सब इकट्ठा है। उस इकट्ठे को हम झेल न पाएंगे, इसलिए हमने छोटे साफ-सुथरे कोने बना लिए हैं जिंदगी में। अपना आंगन साफ-सुथरा कर लिया है; उसके भीतर हम रहते हैं। हमारी बुद्धि हमारा आंगन है। उसके बाहर फैला है विराट । एक बार मैं गांव के बाहर गया । मेरे घर के लोगों ने वह कैमरा कहीं फेंक दिया, और मेरे सब चित्र भी उठा कर फेंक दिए। क्योंकि वे मानने को राजी ही नहीं थे कि ये चित्र हैं, या यह कोई कैमरा है। जब तुम परमात्मा की तरफ जाओगे तब तुम्हारी ये आंखें, जो साफ-सुथरे को देखने की ही आदी हो गई हैं, काम न आएंगी। तुम्हें जरा धूमिल आंखें चाहिए, जिनमें चांद का प्रकाश हो या अमावस के तारों की टिमटिमाहट हो । इतनी रोशनी जितने में तुम रहने के आदी हो गए हो उचित नहीं है। यह रोशनी चीजों को खंड-खंड कर रही है।
SR No.002375
Book TitleTao Upnishad Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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