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ताओ की भेंट श्रेयस्कर है
कि जो तुम न कह सको, फिर यह भी मत कहो कि नहीं कह सकते हैं, फिर बिलकुल ही चुप रहो। यह इतना और क्यों कहते हो कि कह नहीं सकते हैं? अगर इतना ही कहते हो तो बाकी और भी कह दो।
विटगिंस्टीन भी ठीक कह रहा है, कि क्यों परेशानी में डालते हो? तुम परेशानी में खुद हो और दूसरों को डालते हो। नहीं कह सकते तो चुप ही रहो। दैट व्हिच कैन नाट बी सेड शुड नाट बी सेड। मत कहो जो नहीं कहा जा सकता। लेकिन इतना तो तुम कहते हो कि नहीं कहा जा सकता, और फिर चुप हो जाते हो।
रहस्य का अर्थ यही है। कहा भी नहीं जा सकता; बिन कहे भी नहीं रहा जा सकता। कहो तो मौत, न कहो तो मौत। कहो तो उलझन, न कहो तो उलझन। पहेली ऐसी कि सुलझाई भी नहीं जा सकती और बिना सुलझाए रहा भी नहीं जा सकता। और मजा तो यह है कि कहीं भीतर गहरे में सुलझ भी जाती है। लेकिन जब तुम बाहर सुलझाने की कोशिश करते हो तो तुम पाते हो, बाहर सुलझाना असंभव है।
रहस्य का यह भी अर्थ है कि तुम पा तो लोगे, लेकिन जान न पाओगे। तुम एक हो जाओगे सत्य के साथ, तुम सत्य हो जाओगे, लेकिन जान न पाओगे। क्योंकि तुम उसके ही हिस्से हो। . एक ऊर्मि उठती है सागर के तट पर, एक लहर उठती है। वह लहर सागर है, लेकिन सागर को जान न पाएगी। सागर से उठी है, सागर में गिरेगी, वापस लीन होगी, सागर ही है, रंच मात्र भी फासला नहीं, फिर भी लहर सागर को जान न पाएगी। क्योंकि सागर बहुत बड़ा, लहर बहुत छोटी।
तुम परमात्मा में हो। लेकिन तुम लहर की भांति हो, परमात्मा सागर की भांति है। तुम रत्ती भर भी उससे दूर नहीं। रंच भर भी फासला नहीं। दूर होने का उपाय ही नहीं है। अभिन्न हो। लेकिन फिर भी तुम जान न पाओगे। जी सकते हो परमात्मा को, जान नहीं सकते। क्योंकि जीने में कोई असुविधा नहीं है, जानने में असुविधा है। क्योंकि जानने का स्वभाव है कि तुम उसे ही जान सकते हो जो तुमसे अलग है, जो तुमसे भिन्न है। जानने के लिए थोड़ी दूरी चाहिए, फासला चाहिए, थोड़ा अंतराल चाहिए। नहीं तो परिप्रेक्ष्य बनेगा नहीं। पर्सपेक्टिव चाहिए।
परमात्मा को जानने में बड़ी से बड़ी कठिनाई यही है कि उसके और तुम्हारे बीच इंच भर की भी दूरी नहीं है। कहां से खड़े होकर देखो उसे? कौन देखे दूर खड़े होकर? दूर हुआ नहीं जा सकता। तुम उससे ही जुड़े हो। तुम एक • हो। दूरी होती तो हम पार कर लेते। हमने जेट ईजाद कर लिया, हम और बड़े महा जेट बना लेते; दूरी होती हम पार कर लेते। चांद पर हम पहुंच गए, कभी परमात्मा पर भी पहुंच जाते।
सोवियत रूस का अंतरिक्ष यान जब पहली बार मंगल के पास पहुंचा और मंगल का परिभ्रमण किया, तो वहां से अंतरिक्ष यात्रियों ने जो सूचना दी वह बड़ी विचारणीय है। उन्होंने सूचना दी कि यहां तक परमात्मा का हमें कोई पता नहीं चला; अभी तक हमें ईश्वर नहीं मिला। इतनी दूर आ गए हैं, अभी तक ईश्वर नहीं मिला। इसलिए निश्चित ही ईश्वर नहीं है।
अगर परमात्मा दूर होता तो हम जरूर पहुंच जाते। परमात्मा को खोजने मंगल जाने की थोड़े ही जरूरत है! बुद्ध को गया के पास एक छोटे से वृक्ष के नीचे बैठ कर मिल गया। लाओत्से को अपने गांव में बैठे-बैठे मिल गया। कोई चांद-मंगल-तारों पर जाने की जरूरत है? दूर है ही नहीं। तुम कहीं गए कि भटके। तुम अपने में ही रहे तो पा लिया। अपने में ही बसे तो मिल गया। जरा भी यहां-वहां सरके, हिले-डुले कि मुश्किल में पड़े।
खोया है खोजने के कारण। खोज रुक जाए तो तुम अभी उसे पा लो। परमात्मा को खोजना नहीं है, अपने को विश्राम में ले आना है। दौड़ शून्य हो जाए। क्योंकि दौड़ उसके लिए जो दूर हो। और जो पास हो उसके लिए दौड़ का क्या प्रयोजन है? दौड़-दौड़ कर और दूर निकल जाओगे। रुक जाओ, ठहर जाओ। वह मिला ही हुआ है। वह प्राप्त ही है। वह सदा से तुम्हारे भीतर रमा ही हुआ है। इसलिए रहस्य!
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