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ताओ उपनिषद भाग ५
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मित्र को, प्रिय को, परिजन को तुम कुछ भेंट देते हो। उस भेट देने में तुमने जो स्वर सुना है, उसको थोड़ा समझो। वह जीवन का स्वर है। देकर तुम पाते हो; देने में कुछ मिलता है।
और जब तुम किसी चीज को पकड़ लेते हो, तभी तुम खो देते हो। कृपण के पास धन होता ही नहीं, दिखाई पड़ता है। क्योंकि दान तो उसने सीखा नहीं; देना तो उसने जाना नहीं; तो धन को देकर जो मिल सकता था, वह वंचित रह गया है। वह पकड़ना जानता है; वह धन का भोग करना नहीं जानता। धन का एक ही भोग है कि तुम उसे दो। जब तुम देते हो तो तुम किसी परम धन को पाने के अधिकारी हो जाते हो। बांटो, तब तुम पाते हो कि तुम बढ़ते हो। बचाओ, और तुम पाते हो कि तुम सिकुड़ते हो।
यह ऐसे ही है कि अगर तुम्हें गहरी श्वास लेनी हो तो उतनी ही गहरी श्वास बाहर फेंकनी पड़ती है। तुम जितने जोर से बाहर श्वास फेंकते हो उतनी ही तीव्रता से नई हवाएं तुम्हारे अंतःकक्ष को भर देती हैं। तुम अगर भीतर की श्वास को पकड़ लो कृपण की तरह, बाहर न जाने दो-कि श्वास तो जीवन है, इसको बचाएं, भीतर रोकें, सम्हालें। तो तुम जिस श्वास को रोक रहे हो वह मरी हुई श्वास है; उससे आक्सीजन तो विदा हो चुकी, अब तो वह सिर्फ कार्बन डाय आक्साइड है। उससे तुम्हारी मौत होगी। उससे तुम जीवन को न पा सकोगे। और जितनी श्वास तुम भीतर रोके रखोगे उतनी ही नई श्वास को जाने की जगह न रह जाएगी।
और ध्यान रखना कि यही तुम कर रहे हो। फेफड़े में कोई छह हजार छिद्र हैं। लेकिन अच्छी से अच्छी श्वास लेने वाला आदमी भी दो हजार छिद्रों तक ही आक्सीजन को पहुंचा पाता है। चार हजार छिद्र जहर से भरे रह जाते हैं। तुम्हारा पूरा फेफड़ा कभी नई हवा को नहीं ले पाता-तुम ऐसे कृपण हो! यह तुम्हारे पूरे जीवन का ढंग हैं, इसलिए तुम्हारी हर वृत्ति में छिपा हुआ है। तुम श्वास लेने में भी डर रहे हो। तुम भीतर की श्वास को छोड़ने में भी डरते हो। लेकिन जिस श्वास को तुमने भीतर पकड़ लिया, वह श्वास जहर है। उसे बाहर फेंकना जरूरी था।
इसलिए तो सारे योगी प्राणायाम पर इतना जोर देते हैं। प्राणायाम का अर्थ क्या है?
प्राण + आयाम, दो शब्द हैं प्राणायाम में। प्राणायाम का अर्थ है: प्राण को विस्तीर्ण करो, उसके आयाम को. बड़ा करो, फैलाओ। श्वास को भीतर मत रोको, बाहर फेंको। जितने जोर से तुम फेंकोगे, भीतर गड्डा निर्मित होता है, जगह खाली हो जाती है, प्यास पैदा होती है, रो-रोआं मांगता है। तत्क्षण नई हवाएं, ताजी हवाएं गंदी हवाओं को बाहर फेंकने के बाद भीतर भर जाती हैं। जीवन आ रहा है। श्वास प्राण है। तुम जितना फेंक सकोगे, उलीच सकोगे , श्वास को, उतनी ही ताजी श्वास तुम पा सकोगे।
और यही सूत्र जीवन की सभी प्रक्रियाओं में है-उलीचो बेशर्त। जो तुम्हारे पास है उसे दो। बांट दो। प्रेम को बांटो। हृदय को बांटो। अपने बोध, अपनी समझ को बांटो। जो बांट सको, बांटो। कंजूसी मत करो। जीवन तो तुम्हारे हाथ से ऐसे ही निकल जाएगा। अगर तुमने इसे बांट लिया तो तुम महा जीवन को पा लोगे।
और यह जीवन तो ऐसे ही निकल जाएगा-बांटो या न बांटो। मरते वक्त तुम पाओगे, जिसे बचाया वह जा रहा है। यह जीवन तो ऐसे ही चला जाएगा, तुम बचाते रहो तो भी। और बिना उपयोग किए चला जाएगा। मौत की घड़ी में तुम पाओगे कि तुमने जो-जो बचाया वह सब जा रहा है। काश, तुम इसका उपयोग कर लेते और इसे बांट देते और उसे पा लेते जो कि कभी नहीं जाता है।
जीवन का अवसर बांटने के लिए है, ताकि तुम उसे पा लो जो कभी भी नहीं खोता है, ताकि शाश्वत तुम्हारा हो जाए। लेकिन तुम क्षुद्र को पकड़ लेते हो; शाश्वत से वंचित रह जाते हो। और क्षुद्र तो छीन ही लिया जाएगा।
यह बड़े मजे की बात है। जो छिन ही जाना है उसे देने में क्या कृपणता कर रहे हो? जो चला ही जाएगा अपने आप, जिसका जाना सुनिश्चित है, तुम मालिक क्यों नहीं हो जाते और उसका दान ही क्यों नहीं कर देते हो? तुम
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