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________________ ताओ उपनिषद भाग ५ गुरु से शिष्य रक्षा करता रहे तो क्या सीख पाएगा? या कि तुम गुरु से तर्क करते रहोगे। तर्क भी रक्षा है। तर्क भी तलवार की तरह है जिससे तुम अपना बचाव करते रहते हो। ताकि वही प्रवेश पा सके तुममें जिसे तुमने पहले से ही जान रखा है। ताकि तुम्हारी ही बढ़ती हो, तुम मिटो न, बढ़ो, तुममें से कुछ बाहर न निकल जाए, भीतर ही आए। तर्क कंजूस की तरह है जो अपनी तिजोरी के सामने रक्षा करता है। कहानियां कहती हैं कि कंजूस मर भी जाए तो सर्प होकर तिजोरी पर कुंडल मार कर बैठ जाता है। वह रक्षा करता है कि जो भीतर है वह बाहर न चला जाए। पंडित भी अपने ज्ञान की रक्षा करता है। इसलिए पंडित अज्ञानी ही मरता है। अगर तुम्हें पंडित होकर मरना हो-सही-सही अर्थों में पंडित होकर मरना हो तो तुम अज्ञानी होने को राजी हो जाना। अज्ञान यानी खाली। कबीर कहते हैं, पढ़-पढ़ जग मुवा पंडित भया न कोय। पढ़-पढ़ कर लोग मर गए और पंडित न हुए। ढाई आखर प्रेम का पढ़ा सो पंडित होए। लेकिन जिसने छोटा सा प्रेम का शब्द सीख लिया, वह पंडित हो गया। क्या है प्रेम का राज? प्रेम का राज है : निरहंकारिता, खाली होना। जिस दिन तुम खाली हो उसी दिन सारे . जगत की ऊर्जा तुम्हारी तरफ बहनी शुरू हो जाती है। गड्डा बन कर देखो; तुम पाओगे, सब तरफ से दौड़ने लगा परमात्मा तुम्हें भरने को। गड्ढा बनना हो तो दूसरी बात खयाल रखनी जरूरी है : नीचे होना सीखो! नदी गिरती है समुद्र में, क्योंकि समुद्र नदी से नीचा है। समुद्र इतना विराट है कि नदी से ऊपर होता अगर जरा सी भी अकड़ होती। विराट सागर नीचे है, छोटी-छोटी नदियां ऊपर हैं। लेकिन सभी नदियों को सागर में पहुंच जाना पड़ता है। सागर की कला क्या है? क्योंकि उसने अपने को नीचा बना कर बिठा लिया है। जितना नीचा सागर, उतना बड़ा सागर। प्रशांत महासागर बड़े से बड़ा सागर है, क्योंकि पांच मील गहरा खड्डा है। कोई बच कैसे सकेगा इस गड्ढे से? सारे जल को इसी तरफ भाग जाना पड़ेगा। सारी दुनिया की नदियां इसी तरफ दौड़ती रहेंगी। इसीलिए तो इस सागर को प्रशांत महासागर कहते हैं। बड़ा शांत है! इतना नीचा जो है, वह अशांत कैसे होगा? अशांति तो तुम्हारे ऊपर होने की आकांक्षा से आती है। अशांति तो तुम जितने सिंहासन पर चढ़ने की कोशिश करते हो उतनी ही बढ़ती जाती है। जब तुम नीचे से नीचे हो जाते हो तब कैसी अशांति? वहां से तो तुम्हें कोई भी हटा न सकेगा। और नीचे जाने का तो कोई उपाय न रहा। वहां से तो तुम्हारा कभी कोई अपमान न कर सकेगा। तुमने आखिरी से आखिरी जगह चुन ली। अब पीछे हटने की जगह ही नहीं है। अब तुम हारोगे कैसे? अब तुम्हें कोई हराएगा कैसे? अब तुम परम विजय में सुदृढ़ हो गए। अब तुमने जिनत्व पा लिया। अब तुम्हारी जीत आखिरी है। अब तुम अपराजेय हो। अब तुम्हें कोई भी नहीं हरा सकता। तुम उस जगह खुद ही पहुंच गए जहां हराने वाले तुम्हें पहुंचाना चाहते हैं। और मजा यह है कि उस जगह पहुंचते ही सारी दुनिया की सभी नदियां तुम्हारी तरफ दौड़नी शुरू हो जाती हैं; ज्ञान की, प्रेम की, प्रकाश की, परमात्मा की सभी नदियां तुम्हारी तरफ दौड़नी शुरू हो जाती हैं। यह स्वाभाविक है कि जो जितना नीचा है, उतना धनी हो जाता है। जो जितना अकड़ता है, ऊपर चढ़ता है, उतना निर्धन हो जाता है। इसीलिए तो महावीर और बुद्ध राज-सिंहासन से उतर आए; सड़क पर भिखारी बन कर खड़े हो गए। क्या पागल थे? कुछ बात समझ में आ गई—कि जितने तुम ऊपर चढ़ोगे उतनी ही तुम्हारी तरफ जीवन की धाराएं बहनी बंद हो जाती हैं, जितने तुम नीचे उतरते हो उतने ही तुम पात्र होते चले जाते हो। जिस दिन तुम गड्ढे की भांति हो जाते हो, सबसे नीचे, उस दिन तुम्हारी पात्रता विराट है। उस दिन परमात्मा तुम्हें भरेगा सब द्वारों से, सब दिशाओं से, सब आयामों से। 304
SR No.002375
Book TitleTao Upnishad Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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