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________________ ताओ उपनिषद भाग ५ संतत्व का शासन साधारण शासन जैसा शासन नहीं है। वह ऊपर से आरोपित नहीं किया जाता। कोई राजा किसी संत को बिठाल दे वजीर बना कर तो कोई संत का शासन नहीं हो जाता। शासन तो राजा का ही रहेगा। वह संत की महिमा का भी उपयोग कर लेगा अपनी राजनीति में। संत का शासन तो शासित के हृदय से आता है; कोई उसे आरोपित नहीं कर सकता। जिन्हें संत से शासित होना है वे स्वयं ही दूर-दूर की यात्रा करके चले आते हैं। वह शासन अंतर्हृदय का है। वह समर्पण से फलित होता है। तुम खुद ही आकर कह देते हो कि अब मुझे शासन दो। तुम खुद ही अपने को समर्पित कर देते हो। तब च्यांग्त्से इनकार नहीं करता। तब वह तुम्हें स्वीकार कर लेता है। जिस दिन तुम उसके सामने झुक जाते हो, उसी दिन-उसी दिन उसका होना, उसका अस्तित्व तुम्हारे रूपांतरण में संलग्न हो जाता है। वह कोई कृत्य नहीं है संत के लिए कि वह कुछ करके तुम्हारा रूपांतरण करता है। उसका होना ही पर्याप्त है। तुम झुको भर, गंगा तो बह ही रही है। तुम जरा झुको भर और प्यास को बुझा लो। आज इतना ही। 280
SR No.002375
Book TitleTao Upnishad Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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