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________________ ताओ उपनिषद भाग ५ मैं उनसे कहा कि यह आपका जीवन यूं ही जा रहा है; इस जीवन-ऊर्जा का कोई उपयोग नहीं हो पा रहा। वे साधारणतः किसी से बोलते नहीं थे। एक दिन एकांत पाकर मैंने उनको कहा तो उन्होंने कहा कि ऐसे ही जाएगा; पहले से ही गलती हो गई। कुछ भी लाभ नहीं हो पा रहा है। और ये जो लोग हैं, इनको भी कोई लाभ नहीं हो रहा है। उनको ये सब छोटे खयाल हैं कि बस पैर दबाने से किसी की बीमारी ठीक हो जाएगी। बीमारी ठीक भी हो गई तो क्या ठीक हो गया? किसी को खयाल है मुकदमा अदालत में जीत जाएगा। जीत भी गए तो क्या हो गया? मग्गा बाबा जैसा आदमी इन कामों के लिए नहीं है। ये तो बिना उसके भी हो जाएंगे। और हों या न हों, उनका मूल्य ही कुछ नहीं है। उनको देख कर मैंने तभी तय कर लिया था कि जिस दिन भी मुझे काम करना हो उस दिन पहले से ही सावधानी बरतनी जरूरी है। इसलिए जब तक मैं यात्रा करता रहा मैंने कोई व्यवस्था नहीं की, क्योंकि मैंने दूसरी तरह का काम शुरू नहीं किया। तब तक तो मैं लोगों को निमंत्रण देता रहा घूम कर; तब तक मैं अकेला ही घूम रहा था। सुरक्षा की जरूरत तो तब थी। अगर शत्रु से सुरक्षा करनी हो तो जरूरत तब थी जब कि मैं बिना एक आदमी को लिए घूम रहा था पूरे मुल्क में; चौबीस घंटे भीड़ में था। लेकिन तब कोई सुरक्षा का सवाल न था। क्योंकि शत्रु कोई नहीं है; उससे कोई सुरक्षा की जरूरत भी नहीं है। पूना आते ही मैंने अपनी व्यवस्था का पूरा आयाम बदल दिया है। अब मैं काम कर रहा हूं। अब मुझे भीड़ में उत्सुकता नहीं है; और न मैं चाहता हूं कि यहां भीड़ हो। गलत लोगों को मैं किसी भी कारण भीतर नहीं आने देना चाहता हूं। एक क्षण भी उनको देने को मेरे पास नहीं है। अब मैं सिर्फ उन पर काम कर रहा हूं जिन पर कुछ हो सकता है। और मेरी सारी शक्ति उन पर ही लगा देनी है। इसलिए मेरी शक्ति का एक कण भी यहां-वहां व्यर्थ न जाए, इसलिए सारी व्यवस्था जरूरी है। मैं व्यवस्था से ही रहूंगा। और यह तुम्हारे लिए है, यद्यपि तुम्हें यह जंचेगा न। तुम पसंद करते कि मैं वृक्ष के .. नीचे बैठा होता; जब तुम्हारी मौज होती आ जाते, मिल जाते, बकवास कर जाते, पैर दबा लेते, फूल चढ़ा जाते। . हालांकि उससे तुम्हें कुछ भी न होता। लेकिन तुम प्रसन्न होते! तुम्हारे अज्ञान की कोई सीमा नहीं है! आज इतना ही। 130
SR No.002375
Book TitleTao Upnishad Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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