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________________ ताओ का स्वाद सादा है 75 लेकिन इस सब की कला थी, कैसे सत्संग करें और कैसे दर्शन करें। अब तो जाते भी हैं आप गुरु के पास तो पैर छुआ और भागे। शायद आपने ठीक से देखा ही नहीं; एक कर्तव्य था, वह निभाया, पूरा किया। शायद आपने झांका ही नहीं। थोड़ी देर बैठ जाएं और सिर्फ देखते रहें । और ध्यान रहे, यह गुरु की परीक्षा है आपके लिए कि जिस गुरु के पास सिर्फ उसको देखने से आप शांत होने लगें, समझना कि वही आपके लिए गुरु है। जिस गुरु के पास बैठ कर आप अचानक ध्यान में उतर जाएं, समझना कि वही आपके लिए गुरु है। वह क्या कहता है, यह सवाल नहीं है। वह क्या है ? और उस क्या है की गंध आपको मिल सकती है अगर आप थोड़े से जाकर शांति से बैठ जाएं। तो गुरु की तलाश का उपाय ही एक है कि उसके दर्शन से ही आपको कुछ होना चाहिए, उसकी मौजूदगी से आपको कुछ होना चाहिए। इसके पहले कि वह बोले, और उसकी खबर आप में पहुंच जानी चाहिए । इसके पहले कि वह हिले, और आपके भीतर कुछ हिल जाना चाहिए। लाओत्से कहता है, 'बिना हानि उठाए संसार अनुगमन करता है; स्वास्थ्य, शांति और व्यवस्था को उपलब्ध होता है। अच्छी वस्तुएं खाने को दो, राही ठहर जाता है, मेहमान रुक जाता है। लेकिन ताओ का स्वाद बिलकुल सादा है।' इसलिए ताओ के पास शायद ही कभी कोई मेहमान रुकता है । स्वाद बिलकुल सादा है। लाओत्से कहता है कि ताओ में न तो कोई तर्क है, न कोई तीव्र उत्तेजना है, न कोई भय की प्रतारणा है, न कोई लोभ का आकर्षण है। ताओ कहता नहीं कि तुम अगर पुण्य करो, दान करो, तो स्वर्ग पाओगे। ताओ कहता नहीं कि तुमने अगर पाप किया, चोरी की, बेईमानी की, तो नर्क में सड़ोगे । ताओ तुम्हें डराता नहीं और ताओ तुम्हें प्रलोभित भी नहीं करता । ताओ तुम्हें कोई आश्वासन नहीं देता कि भविष्य में ऐसा होगा अगर तुमने माना, और नहीं माना तो ऐसा होगा। ताओ के पास कोई लोभ और भय की व्यवस्था नहीं है। इसलिए उसका स्वाद बिलकुल सादा है। आदमी धार्मिक बनता है—अक्सर, सौ में निन्यानबे मौके पर - भय या लोभ के कारण। या तो डरता है तो ईश्वर का सहारा मांगता है और या फिर लोभ सताता है तो ईश्वर का सहारा मांगता है। हमारा ईश्वर लोभ और भय का ही फल है। जब भी तुम मंदिर में गए हो तो पूछना अपने से कि किसलिए आए हो। तो तुम या तो भय को सरकता हुआ पाओगे या लोभ को उठा हुआ पाओगे। और अगर तुम दो में से एक भी पाओ तो मंदिर जानना कि व्यर्थ है जाना; घर लौट आना वापस। अगर मंदिर जाते वक्त न तो भय की कोई लहर भीतर हो, न लोभ की कोई लहर भीतर हो, तो ही समझना कि मंदिर में तुम्हारा प्रवेश होगा। मंदिर नाम के मकान में प्रवेश करना तो बहुत आसान है। पशु-पक्षी, मक्खियां भी काफी अभी वर्षा में प्रवेश गई हैं। उसके लिए प्रवेश करने का कोई सवाल नहीं है। मकान में तो, मंदिर वाले मकान में तुम जा सकते हो, आ सकते हो। लेकिन मंदिर मकान नहीं है। मंदिर एक घटना है, मंदिर एक अनुभव है। और उस अनुभव में तुम तभी प्रवेश कर सकोगे जब तुम्हारे भीतर ये दो चीजें न हों। लेकिन ये दो ही चीजें अगर हट जाएं तो जमीन पर धार्मिक आदमी खोजना मुश्किल है। रसेल ने कहा है कि दुनिया में अगर सुख आ जाए तब मैं समझं कि कोई धार्मिक हो । ठीक कहता है। धार्मिक आदमी जैसे हैं, उनको सोचने से रसेल की बात करीब-करीब ठीक लगती है। तो वह कहता है, दुनिया में दुख है इसलिए लोग धार्मिक हैं। लोग परेशान हैं इसलिए लोग धार्मिक हैं। लोग सुखी हो जाएं तो फिर कोई धार्मिक हो ! उसकी बात में थोड़ी सच्चाई मालूम पड़ती है। क्योंकि सुख में आप भी स्मरण नहीं करते; दुख में स्मरण करते हैं। जितना दुख बढ़ता है उतने आप आस्तिक होने लगते हैं। और जितना सुख बढ़ता है उतने नास्तिक होने लगते हैं।
SR No.002374
Book TitleTao Upnishad Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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