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वह भी उस
ब
करना हो तो भारत
निसर्ग की, स्वभा
तिब्बत से बौद्ध परंपरा और चीन से लाओत्से परंपरा का विध्वंस शुरू हुआ। लेकिन अस्तित्व में सिर्फ विध्वंसक शक्तियां नहीं हैं, उसका संतुलन बनाने के लिए सृजनात्मक शक्तियां भी कार्यरत होती हैं। लाओत्से की विचारधारा इतनी श्रेष्ठतम है कि उसे बचाना, उसे पुनरुज्जीवित करना पृथ्वी के हित में है। अन्यथा भौतिकवाद उसे पूरा ही निगल जाता। ओशो के श्रीमुख से ताओ की सरिता फिर बह निकली। उसे सरिता क्या कहें, वह साक्षात सागर ही है। लाओत्से ने सत्य के सागर को गागर में सूत्रित किया था। ओशो ने गागर पुनश्च सागर में उंडेल दी। और 'ताओ तेह किंग' का पुनर्जन्म हुआ 'ताओ उपनिषद' की सूरत में।
इस पुनर्जन्म के गर्भ में गहरे कारण छिपे हैं। ओशो कहते हैं, 'लाओत्से की पूरी परंपरा नष्ट होने के करीब है। इसलिए दुनिया में बहुत तरह की कोशिश की जाएगी कि परंपरा नष्ट न हो पाए, उसके बीज कहीं और अंकुरित हो जाएं। मैं जो बोल रहा हूं वह भी उस बड़े प्रयास का हिस्सा है।
'लाओत्से को अगर कहीं भी स्थापित करना हो तो भारत के अतिरिक्त और कहीं स्थापित करना मुश्किल है। भारत समझ सकता है। अकर्म की धारणा को भारत समझ सकता है। निसर्ग की, स्वभाव की धारणा को भारत समझ सकता है।'
हो सकता है लाओत्से को भारत से जोड़ने के हेतु ओशो ने अपने प्रवचनों को 'ताओ उपनिषद' कहा है। लाओत्से कहीं भारत की आत्मा में बसा हुआ है। लाओत्से का परिचय हमारे वेद-उपनिषदों को पहचानने का माध्यम बन सकता है।
लाओत्से और ओशो का मेल हमें वहां दिखाई देता है जहां लाओत्से विरोधाभासों के बीच सहजता से डोलता है और दो विपरीत स्वरों के बीच संगीत पैदा करता है। ओशो भी तो विरोधाभास को कितनी खूबसूरती से सम्हालते हैं-जैसे कोई पक्षी अपने दो परों को तौलते हुए दूर गगन में उड़ान भरे।
उदाहरण के लिए सूत्र क्रमांक 36, 'जीवन की लय' देखें'सत्ता से जिसे गिराना है, पहले उसे फैलाव देना पड़ता है।' 'जिसे दुर्बल करना है, पहले उसे बलवान बनाना पड़ता है।' 'जिसे नीचे गिराना है, पहले उसे शिखरस्थ करना होता है।'
इस द्वंद्व को इतनी सुस्पष्टता से वही देख सकता है जो निर्दूद्व स्थिति में पहुंच गया है, जिसकी वीणा के सारे स्वर शांत हो गए। स्वभावतः लाओत्से के बेबूझ सूत्रों को मनुष्य की समझ में उतारने के लिए ओशो के अतिरिक्त किसी की सामर्थ्य नहीं है।
सूत्र का अर्थ है: संक्षेप में कही गई बात। सूत्र का मूल अर्थ है धागा। तो सूत्र वह धागा है जिसे पकड़कर आप ज्ञान की गहराई में उतर सकते हैं। अब अगर बहुत बड़ा रहस्य थोड़े से शब्दों में कहना हो तो कोड लैंग्वेज, सांकेतिक भाषा का प्रयोग करना होता है। उन संकेतों को डि-कोड किए बगैर इन सूत्रों को समझना असंभव है। साधारण आदमी की समझ वहां तक नहीं पहुंच सकती। इसी वजह से लाओत्से के कीमती सूत्र उपेक्षित पड़े रहे। जो बहुमूल्य रत्न थे उन पर धूल जमती रही। ओशो ने उस धूल को झाड़कर हीरों को फिर चमका दिया और उन्हें मनुष्य के उपयोग के योग्य बना दिया। अस्तित्व इसके लिए ओशो का सदा ऋणी रहेगा।
अब जैसे लाओत्से कहता है : 'श्रेष्ठ चरित्र घाटी की तरह खाली प्रतीत होता है।' .
हमारा तर्कयुक्त मस्तिष्क इस कथन को एकदम अस्वीकार कर देगा। यह क्या उल्टी बात कर रहा है? अब ओशो की निगाह से देखिए:
'लाओत्से के ये सूत्र सामान्य, तृतीय श्रेणी के मनुष्य को जैसा दिखायी देता है उसकी खबर देते हैं। यह जो
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