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दि ओशो की ऋतंभरा प्रज्ञा लाओत्से के रहस्यमय सूत्रों को प्रकाशित नहीं करती तो वर्तमान युग ताओ की अकूत संपदा से वंचित रह जाता। हमने लाओत्से का नाम ही तब सुना जब ओशो उसका हाथ पकड़कर अपने दरबार में ले आये और उसे उच्चतम आसन पर प्रतिष्ठित किया। यहां तक कि अपने आवास का नाम भी उन्होंने 'लाओत्से हाउस' ही रखा।
ओशो को लाओत्से के प्रति इतनी आत्मीयता क्यों कर होगी? अब वैसे तो रहस्यदर्शी के रहस्यों में कौन उतर सकता है ? रहस्यदर्शी को सीधे समझ पाना तब तक संभव नहीं है जब तक हम उसमें पूरी तरह घुल-मिल न जाएं-जैसे बताशा पानी में घुलता है। रहस्यदर्शी को अंशतः समझने का झरोखा है उसके शब्द। शब्दों की अंगुली पकड़कर हम थोड़ा-बहुत उसके अंतराकाश में झांक सकते हैं। उस विराट
का कुछ न कुछ स्वाद शब्दों में उतरता ही है। लाओत्से के सूत्र 'ताओ तेह किंग' पढ़कर कुछ-कुछ ऐसी ही अनुभूति होती है। लगता है, उत्तुंग शिखर पर खड़े होकर अनंत आकाश और अतल घाटियों का नजारा देख रहे हैं। सिर घूमने लगता है।
ताओ क्या है? स्वयं लाओत्से कहता है : ताओ परम है और अनाम है।
हमें नामों की जरूरत क्यों पड़ती है? अपनी सुरक्षा के लिए। हम वस्तुओं पर नामों के लेबल चिपका देते हैं और सोचते हैं कि हम उन्हें जान गए। अज्ञात के साथ जीना कितना भयभीत करता है। भय मानवीय सभ्यता की देन है। और ताओ वह विशुद्ध स्थिति है जहां सभ्यता का उदय नहीं हुआ।
हो सकता है इस विशुद्ध स्थिति से मनुष्य-जाति का पतन होना शुरू हुआ इसलिए ताओ की परंपरा लुप्तप्राय हो गई। लाओत्से के रूप में जो विराट उतर आया था धरती पर, उसकी स्मृति धूमिल हो गई।
ताओ उपनिषद के इस भाग के प्रारंभ में ओशो खुद यह प्रश्न उठाते हैं कि मैं लाओत्से पर क्यों बोल रहा हूँ? फिर खुद ही बताते हैं कि चीन में कम्युनिज्म का जो उदय हुआ वह सारे रहस्यवादों के अस्त का कारण बना।