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________________ ताओ उपनिषद भाग ४ बर्तन तो बहुत सुंदर है, बस यह कहने का मतलब यह है कि उस आदमी की वासना पैदा हो गई और अब उसे न देने का अर्थ उसे चोर बनाना होगा; इसलिए उसे उसी वक्त दे देना। इसका परिणाम यह हुआ है कि एस्कीमो समाज में कोई चोरी नहीं हो सकती। चोरी का कोई उपाय ही नहीं है। समाज बदले, धारणा बदले, तो चोरी...। चोरी एक व्यवस्था के अंतर्गत चलती है। आपकी धारणा अस्तित्व पर मत थोपें। इतना जानें कि मुझे अच्छा नहीं लगता कि कोई मेरी चीज ले जाए, इसलिए चोरी बुरी है। लेकिन अस्तित्व में क्या बुरा है? आदमी के साथ चोरी आई; पशुओं में तो कोई चोरी नहीं है। क्योंकि कोई निजी संपत्ति नहीं है। निजी संपत्ति होगी, चोरी पीछे आ जाएगी। तो निजी संपत्ति में ही चोरी छिपी हुई है। इसलिए प्रधा का बहुत प्रसिद्ध वचन है: प्रापर्टी इज़ थेफ्ट। सब धन चोरी है। धन मात्र चोरी है। क्योंकि धन मेरा है, तो मैंने कब्जा किया है। और किसी की भी वासना उस पर पैदा होती है। और वासना पर किसी की भी तो मालकियत नहीं है। आपकी मालकियत है वासना पर? एक मकान आप देखते हैं; क्या है आपका बल कि आप भीतर वासना को रोक दें? वासना उठती है कि यह मकान मेरा होता! चोरी शुरू हो गई। आप कमजोर हों, न कर पाएं, समाज का भय हो, अदालत का डर हो, और कारण हों, नीति का भय हो, नरक जाने का डर हो, भगवान दंड देगा उसकी कोई चिंता हो, और आप न कर पाएं, वह बात दूसरी है। लेकिन चोरी आपके भीतर शुरू हो गई। आपने दूसरे की चीज पर मालकियत शुरू कर दी। आप चाहते हैं; नहीं कर पाते हैं, बात दूसरी है। तो दो तरह के चोर हैं। एक जो भीतर ही भीतर करते रहते हैं; एक जो बाहर कर लेते हैं। जो बाहर करते हैं, उनमें साहस ज्यादा होता है, मूढ़ता ज्यादा होती है, समझ कम होती है। सोच-विचार नहीं कर पाते, ज्यादा दूर का, क्या परिणाम होगा, इसका हिसाब नहीं लगा पाते। चालाक कम हैं, कनिंग कम हैं; गणित का उन्हें पता नहीं है। आप ज्यादा चालाक हैं, गणित लगा लेते हैं; भीतर-भीतर करते हैं, लेकिन बाहर कभी नहीं आने देते। लेकिन निर्णय लेने का अधिकार नहीं है। माना कि एक आदमी चोर है और मुझे चोरी पसंद नहीं है, तो भी वह चोर बुरा है, ऐसी धारणा बनाने की कोई जरूरत नहीं है। मुझे पसंद नहीं, इसलिए मुझे बुरा मालूम पड़ता है; लेकिन अस्तित्व में उसकी स्वीकृति है। परमात्मा उसे भी जीवन दे रहा है; उसकी श्वास में कोई बाधा नहीं डालता।' और सूरज रोशनी कम नहीं देता और हवाएं उसको प्राणवायु नहीं रोकतीं। जीवन उसे स्वीकार किए हुए है। तो जिसे जीवन स्वीकार किए हुए है उसे मैं भी अस्वीकार न करूं। ऐसी धारणा बढ़ती चली जाए तो अनूठी घटना घटती है। आपके भीतर से सब तनाव समाप्त हो जाते हैं। क्योंकि तनाव धारणाओं के हैं; तनाव वह जो आपके भीतर बेचैनी है, चिंता है, वह इन धारणाओं के कारण है। वह क्षीण हो जाती है, और आप एक शांत मौन में प्रविष्ट होने लगते हैं। उस प्रवेश में ही आपको, वह जो सर्वत्र प्रवाहित ताओ है, उससे संस्पर्श होता है। 'जब उसका काम पूरा होता है तब वह उन पर स्वामित्व नहीं करता।' यह ताओ अस्वीकार नहीं करता किसी को। और जब इनमें से कोई जीवन अपने शिखर पर पहुंच जाता है और उसकी समग्रता खुल जाती है और प्रकट हो जाती है, तब भी ताओ उस पर दावा नहीं करता। समझें। बुद्ध या महावीर परिपूर्णता को उपलब्ध हुए। परमात्मा चोर को इनकार नहीं करता, और परमात्मा ने फिर कोई घोषणा नहीं की कि बुद्ध को मैं स्वीकार करता हूं। परमात्मा ने कोई घोषणा नहीं की कि अब बुद्ध मेरे हो गए। उसने कोई स्वामित्व की घोषणा नहीं की। काम पूरा हो गया। बुद्ध वहां आ गए जहां उनकी चेतना अंततः आ सकती थी। वह हो गया जो हो सकता था; शिखर छू लिया गया, लेकिन कोई स्वामित्व का दावा नहीं है। और बड़े मजे की बात है कि बुद्ध तो कहते हैं कोई परमात्मा नहीं है। इस स्थिति में भी परमात्मा की कोई घोषणा नहीं है कि मैं 54
SR No.002374
Book TitleTao Upnishad Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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