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सारा जगत ताओ का प्रवाह हुँ
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जैसे-जैसे जीवन को इस विचार से देखेंगे कि सभी तरफ परमात्मा है तो कुछ भी अशुभ हो नहीं सकता। अगर दिखाई पड़ता है तो हमारी कहीं भूल होगी। तो हम और खोजें, और गहरे प्रवेश करें, तो हमें पता चल जाएगा कि भूल हमारी कहां थी । और भूल गिर जाएगी। और हम अखंड जीवन का जो उत्सव है उसको पहचान पाएंगे। 'महान ताओ सर्वत्र प्रवाहित है; बाढ़ की भांति बाएं-दाएं सब ओर बहता है। '
उसकी कोई दिशा नहीं है।
'असंख्य वस्तुएं उसी से जीवन ग्रहण करती हैं, और यह उन्हें अस्वीकार नहीं करता।'
यह समझने जैसा है। सुना है मैंने, एक सूफी फकीर ने परमात्मा से प्रार्थना की एक रात कि उसके पड़ोस में एक आदमी है जो बाधा डालता है प्रार्थना में, पूजा में उपद्रवी है, दुष्ट है, शैतान है पूरा का पूरा। इसे सुधार दो; क्योंकि इसके रहते पूजा-प्रार्थना ही मुश्किल हो गई है।
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तो उसने अपने स्वप्न में आवाज सुनी कि उस आदमी को मैं तीस साल से स्वीकार किए हुए हूं और तुझे तो अभी तीन महीने ही इस पड़ोस आए हुए हैं। और जिसे मैंने स्वीकार किया है उसे तुझे अस्वीकार करने की क्या जरूरत है? और अगर वह पूजा में तेरी, प्रार्थना में बाधा डालता है, तो तू उस पर ध्यान मत दे। तेरी पूजा और प्रार्थना कमजोर है, तू उसका स्मरण कर। और जान कर ही मैंने तुझे उस पड़ोस में भेजा है, ताकि तेरी पूजा कितनी गहरी है उसका तुझे पता चल जाए। और यह आदमी बड़ा काम का है और मेरे ही काम में लगा है।
वह फकीर बहुत हैरान हुआ। सुबह जाग कर उसको बड़ी मुश्किल हुई खड़ी। बात तो ठीक लगी। क्योंकि जगत में जो भी हो रहा है, अगर वह परमात्मा को अस्वीकार है, तो वह होगा ही नहीं। एक बात । वह कैसे सकता है ? इसके तो दो ही अर्थ हो सकते हैं कि या तो परमात्मा को वह स्वीकार है और या फिर जगत में वैसा भी कुछ हो सकता है जो उसको अस्वीकार है। और अगर उसको अस्वीकार होकर भी जगत में कुछ हो सकता है तो उसकी कोई शक्ति नहीं है; वह व्यर्थ है । और अगर उसके विपरीत भी कुछ हो सकता है तो उस नपुंसक परमात्मा को पाकर भी क्या करिएगा? अगर उसके विपरीत भी कुछ हो सकता है तो आप मोक्ष से भी खींचे जा सकते हैं वापस ।
परमात्मा के विपरीत कुछ भी नहीं हो सकता। इसलिए जो आपको बुरा भी दिखाई पड़ रहा हो वह भी उसकी ही मर्जी से हो रहा है। और यह प्रतीति आते ही कि उसकी मर्जी ही अस्तित्व का आधार है, जो आपको बुराई दिखाई पड़ती है वह बुराई दिखाई पड़ेगी नहीं। वह बुराई दिखाई ही इसलिए पड़ती है कि आपको अस्वीकार है। लेकिन जब उसको स्वीकार है तो आपकी अस्वीकृति का क्या अर्थ है? आप अपनी अस्वीकृति को गिरा दें ।
लाओत्से कहता है, 'असंख्य वस्तुएं उसी से जीवन ग्रहण करती हैं। '
सभी कुछ उसी से जीवन ग्रहण करता है—जहर भी और अमृत भी। दोनों में उसी का जीवन है, उसी की शक्ति, उसी की ऊर्जा है। साधु में और असाधु में, हत्यारे में और प्रेमी में, करुणावान में और कठोर में वही प्रवाहित है।
'और यह उन्हें अस्वीकार नहीं करता।'
और कोई अस्वीकृति नहीं है अस्तित्व को किसी की भी । अस्तित्व सभी को समाहित किए है।
साधक को अगर यह खयाल आना शुरू हो जाए कि मैं भी अस्तित्व की भांति हो जाऊं और सभी कुछ समाहित कर लूं और मेरे भीतर से भी विरोध, शत्रुता गिर जाए; और मैं न कहूं कि यह बुरा है और मैं न कहूं कि यह भला है; और मैं कहूं कि उसकी मर्जी है, सिर्फ इतना ही जानूं कि अस्तित्व की मर्जी है। और जब अस्तित्व की मर्जी है तो जरूर कुछ कारण होगा, गहन कारण होगा। जिसे हम भला कहते हैं वह बुरे के बिना अस्तित्व में नहीं हो सकता; उसके लिए बुरा जरूरी है। बुरा पृष्ठभूमि बनता है। जिसको हम सौंदर्य कहते हैं वह कुरूपता के बिना न होगा। वह कुरूप बादलों के बीच में ही सौंदर्य की बिजली चमकती है।