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________________ स्वयं का ज्ञान ही बाब है गया; लड़-लड़ कर हार गया, थक गया। वह जो दबाता था, हार चुका है और जिसको दबाता था, वह ताजा है। जो लोग कामवासना को भोग लेते हैं वे शायद साठ साल में कामवासना के बाहर भी हो जाएं, लेकिन जो लड़ते रहते हैं वे मरते दम तक बाहर नहीं हो पाते। क्योंकि उनकी कामवासना जवान ही बनी रहती है। वे तो बूढ़े हो जाते हैं, वे तो थक जाते हैं, टूट जाते हैं, और वासना बड़ी ताकतवर बनी रहती है। तब बेचैनी शुरू होती है, तकलीफ शुरू होती है। - लड़ कर भीतर आप सिर्फ उपद्रव कर सकते हैं, और जीवन, समय और अवसर खो सकते हैं। लड़ने का सवाल नहीं है; समझ का सवाल है। लड़ने की बात ही गलत है; द्वंद्व खड़ा करना ही गलत है। ऐसा भी सोचना कि इसे रोकना है, गलत है। क्योंकि जिसे आप रोक रहे हैं वह भी आप हैं, और जो रोक रहा है वह भी आप हैं। यह ऐसा है जैसे मैं अपने दोनों हाथों को लड़ाने लगूं। कौन जीतेगा, बायां या दायां? कोई भी नहीं जीत सकता। हां, यह हो सकता है कि मैं एक ऐसी परंपरा में पला होऊं जहां मैंने सुन रखा हो कि दायां हाथ गलत है-जहां मैंने सुन रखा हो कि दायां हाथ गलत या बायां गलत, एक ठीक है और एक गलत है तो मैं पूरा का पूरा वजन अपना उस हाथ पर रख लूंगा जो ठीक मैंने सुन रखा है, और जो हाथ गलत है उसको वजन नहीं दूंगा। लेकिन इससे क्या फर्क पड़ता है? वह हाथ मेरा ही है। और वजन दूं या न दं, चाहे मैं अपनी ताकत पूरी दाईं तरफ से लगाऊं तो भी बायां मेरा है, और मैं न भी लगाऊं तो कोई फर्क नहीं पड़ता। और मजे की बात यह है कि जब मैं ताकत बाएं हाथ को न दूंगा और दाएं हाथ को दूंगा, तो थोड़ी देर में दायां हाथ थक जाएगा और बायां ताजा रहेगा। क्योंकि जिसको ताकत दी गई है वही थकेगा, बायां थकेगा नहीं। और आखिर मैं पाऊंगा कि बायां जीत जाएगा। जरा सी ताकत, और बायां दाएं को नीचे कर देगा। इसलिए ब्रह्मचर्य में लड़ने वाले लोगों पर कामवासना क्षण भर में जीत जाती है। उसमें देर नहीं लगती। भोगी को प्रभावित करना बहुत मुश्किल है। इंद्र भोगियों के पास जरा अप्सराओं को भेज कर देखे; वे बैठे अपनी सिगरेट ही पीते रहेंगे। मगर ऋषि-मुनि बड़ी मुश्किल में पड़ जाते हैं, एकदम मुश्किल में पड़ जाते हैं। उनको हिलाने में दिक्कत ही नहीं होती। खूबी अप्सराओं की नहीं है, खूबी ऋषि-मुनियों की है। वे जिस बुरी तरह दबा कर बैठे हैं, जिससे दबाया है वह कमजोर हो गया और जिसको दबाया है वह ताकत से भरा है। और अप्सराएं भेजने की कोई जरूरत नहीं है, कोई भी स्त्री काम करेगी। और वह जो ऋषि-मुनियों को अप्सराएं बहुत सुंदर दिखाई पड़ी हैं, वे अप्सराएं सुंदर थीं, इसका पक्का सबूत नहीं है; ऋषि-मुनियों की वासना प्रगाढ़ थी, इसका सबूत है। वह प्रगाढ़ वासना किसी भी चीज को सुंदर कर देती है। स्त्री होना काफी है। प्रोजेक्शन है सौंदर्य तो, वह भीतर का प्रक्षेपण है बाहर। भोगियों के पास भेजना बहुत मुश्किल है। इसीलिए आजकल इंद्र ने भेजना बिलकुल बंद कर दिया है। आपको कहीं अप्सराएं दिखाई न पड़ेंगी। क्योंकि . किसको भेजिए? कोई डिगाने को है ही नहीं। कोई अकड़ कर बैठा ही नहीं है जिसको हिलाना हो। लोग इतने हिल चुके हैं कि अप्सरा को देख कर सो जाएंगे-इतने थके-मांदे बैठे हैं। भोगी भ्रष्ट नहीं होता। आपने कभी भ्रष्ट भोगी शब्द सुना है? भ्रष्ट योगी शब्द सार्थक है। कारण क्या होगा? संघर्ष, लड़ाई की दृष्टि, अंतर-जगत में घातक है। और साधक को सावधान होने की जरूरत है कि भीतर वह लड़ना शुरू न कर दे और भीतर किसी तरह का द्वंद्व खड़ा न करे, दुश्मन खड़ा न करे। भीतर जो भी है उसे आत्मसात कर ले अपने में। कामवासना है तो भी मेरी है; क्रोध है तो भी मेरा है; जो भी है भीतर वह मैं हूं। मेरा है कहना भी ठीक नहीं, मैं हूं। और उस सबके साथ मुझे एक आत्म, एक आत्मिक संबंध; और उस सबके साथ एक गहरी मैत्री, एक आत्मीयता, एक निकटता, एक अपनापन निर्मित करना है। और जैसे-जैसे यह आत्मीयता इकट्ठी होने लगती है वैसे-वैसे वासना की जो शक्ति बाहर बहती है, वह बाहर न बह कर भीतर बहने लगती है। 35
SR No.002374
Book TitleTao Upnishad Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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