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________________ ताओ उपनिषद भाग ४ 34 जैसे सूरज निकलता है और फूल खिल जाते हैं; कोई सूरज को आकर फूलों को खिलाना नहीं पड़ता। सूरज निकलता है, पक्षी गीत गाने लगते हैं; कोई एक-एक पक्षी के कंठ को खटखटाना नहीं पड़ता कि अब गीत गाओ । सूरज कुछ करता ही नहीं; उसकी मौजूदगी, और जीवन संचरित हो जाता है। जिस दिन आपके भीतर आप सिर्फ मौजूद होते हैं— शांत मौजूद, जस्ट योर प्रेजेंस, सिर्फ उपस्थिति — आपकी उपस्थिति में जो महाशक्ति प्रकट हो जाती है, विजय घट जाती है। भीतर की विजय कोई संघर्ष नहीं है। भीतर की विजय कोई युद्ध नहीं है। भीतर की विजय कोई दमन नहीं है। लाओत्से कहता है, 'जो दूसरों को जीतता है वह पहलवान है; और जो स्वयं को जीतता है वह शक्तिशाली।' जो दूसरों को जीतता है वह व्यर्थ ही अपनी शक्ति खो रहा है। आखिर में उसके हाथ खाली रह जाएंगे। आखिर में वह पाएगा, उसकी मुट्ठियों में सिवाय राख के और कुछ भी नहीं है। और जो स्वयं को जीत लेता है वही वस्तुतः शक्ति का उपयोग कर रहा है। उसने जीवन-ऊर्जा में जो भी छिपा था मूल्यवान, सुंदर, सत्य, वह सभी पा लिया है। आप दो तरह का उपयोग कर सकते हैं शक्ति का एक तो बाहर दूसरों को जीतने में और एक भीतर स्वयं को जीतने में। दोनों का गणित अलग है और दोनों का तंत्र अलग है, दोनों के काम का ढंग अलग है। बाहर शक्ति को हिंसात्मक होना पड़ता है; भीतर शक्ति को अहिंसात्मक होना पड़ता है। बाहर शक्ति विध्वंस करती है; भीतर शक्ति सृजनात्मक हो जाती है— आत्म-सृजन, स्वयं का आविष्कार । लेकिन भाषा की मजबूरी है। हम जो बाहर के लिए उपयोग करते हैं वही भीतर के लिए उपयोग करना पड़ता है। लेकिन आप फर्क समझ लेंगे। यह कोई जीत नहीं है, क्योंकि यहां न कोई हारने को है भीतर और न कोई जीतने को है। यहां दो नहीं हैं कि हार-जीत हो सके। इसलिए जो लड़ने में लग जाता है वह द्वंद्व में पड़ जाता है। और उसका द्वंद्व उसे और भी रुग्ण कर देता है । द्वंद्वग्रस्त संन्यासी, साधक, योगी चौबीस घंटे एक ही काम में लगा है, अपने से लड़ने के काम में लगा है। इस काम में कभी भी विजय आती नहीं। कौन जीतेगा? कौन हारेगा ? वहां दो नहीं हैं। और इस लड़ने में वह अपनी शक्ति खो रहा है। इधर मैंने अनुभव किया। एक युवक मेरे पास आए। कोई दस-पंद्रह वर्ष होते होंगे। उस समय उनकी उम्र कोई पैंतीस-चालीस के बीच में रही होगी। साधक ! बड़ी तीव्रता से खोज में लगे हुए ! उन्होंने मुझसे पूछा कि अभी तक मैं अपने को कामवासना से रोक रहा हूं, लड़ रहा हूं, ब्रह्मचर्य को साधने की कोशिश कर रहा हूं। क्या मैं इसमें सफल हो जाऊंगा? मैंने उनसे कहा कि पैंतालीस साल तक तो सफलता का आसार रहेगा, पैंतालीस साल के बाद हार शुरू हो जाएगी। उन्होंने कहा, आप क्या कहते हैं। मेरे गुरु ने तो मुझे कहा है कि यह थोड़े ही दिन का उपद्रव है; जवानी चली जाएगी, झंझट खत्म हो जाएगी। तो मैंने कहा कि जब तुम पैंतालीस के हो जाओ तब फिर तुम मेरे पास आ जाना। अब वे पैंतालीस के होकर मेरे पास आए थे। वे कहने लगे कि आपने ठीक कहा था। मुसीबत बढ़नी शुरू हो गई। पूछने लगे कि मेरी समझ में नहीं आता इसका गणित क्या है ? क्योंकि तीस साल में इतनी मुसीबत नहीं थी, अब पैंतालीस में उससे ज्यादा हो रही है। तो मैंने उनसे कहा कि तीस साल में तुम्हारे पास लड़ने की शक्ति ज्यादा थी; पैंतालीस साल में कम हो गई। और जिससे तुम लड़ रहे हो वह शक्ति उतनी की उतनी है। तुम लड़-लड़ कर चुक रहे हो, कामवासना को दबा दबा कर परेशान हो रहे हो। वह दबाने वाला कमजोर होता जा रहा है और वासना अपनी जगह पड़ी है। पैंतालीस साल के बाद ब्रह्मचारियों को बड़ा कष्ट शुरू होता है। और असली तकलीफ तो साठ के बाद शुरू होती है। इसलिए आमतौर से लोग सोचते हैं कि अब तो साठ साल का हो गया फलां आदमी और अभी तक परेशान है! असली परेशानी ही तब शुरू होती है। क्योंकि वह दबाने वाली ताकत क्षीण हो गई; वह लड़ने वाला कमजोर हो
SR No.002374
Book TitleTao Upnishad Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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