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________________ मार्ग स्वयं के भीतर से है जिसे पाना है। क्योंकि अगर तुम्हें जरा भी खयाल रहा कि परमात्मा है तो तुम्हारे मन में वासना जगेगी कि परमात्मा को कैसे पा लें। बुद्ध कहते हैं, न कोई मोक्ष है जिसे पाना है। नहीं तो तुम दौड़ोगे। न कहीं कोई ब्रह्म है; तुम्हारे अतिरिक्त कहीं कुछ भी नहीं है। और तुम यहीं हो। इसलिए कहीं जाने का कोई सवाल नहीं है। बुद्ध को समझा नहीं जा सका; लोग समझे कि नास्तिकता की बात है। न ब्रह्म, न मोक्ष, कहीं जाना नहीं है, तो फिर धर्म कैसे होगा? और कुछ पाना नहीं है तो लोग तो भ्रष्ट हो जाएंगे, संसार में भटक जाएंगे। बुद्ध को समझना कठिन है। क्योंकि बुद्ध कह रहे हैं कि कुछ भी पाने योग्य नहीं है, न संसार में और न मोक्ष में। ताकि तुम दौड़ो मत, ताकि तुम ठहर जाओ। और तुम ठहरे कि सब मिल जाएगा। चाहे तुम उसे ब्रह्म कहना, चाहे तुम उसे मोक्ष कहना, निर्वाण कहना, जो तुम्हारे मन में आए, लेकिन तुम रुक जाओ तो वह मिल जाएगा। बुद्ध से कोई पूछता है बाद के दिनों में कि आपने कैसे पाया? तो बुद्ध ने कहा, जब तक पाने की कोशिश की तब तक नहीं मिला। जब ऊब गया, थक गया, कोशिश भी छोड़ दी पाने की, उसी क्षण, उसी क्षण अनुभव हुआ कि जिसे मैं खोज रहा था वह सदा से मुझे मिला हुआ है। लेकिन खोज के कारण मेरी आंखें बाहर भटकती थीं और मैं भीतर देखने में समर्थ न हो पा रहा था। करीब-करीब ऐसा ही कि आप खिड़की से बाहर झांक रहे हों, और घर के भीतर जो खजाना रखा है उस तरफ नजर न जाए, उस तरफ पीठ रही आए। 'इसलिए संत बिना इधर-उधर भागे ही जानते हैं, बिना देखे ही समझते हैं, और बिना कर्म किए सब कुछ संपन्न करते हैं।' बिना देखे ही समझते हैं। जो भी देखा जा सकता है वह पराया होगा, वह बाहर होगा। आत्मा को देखा नहीं जा सकता। यद्यपि हमारे पास शब्द हैं: आत्म-दर्शन, आत्म-साक्षात्कार, आत्म-ज्ञान। ये सभी शब्द गलत हैं। क्योंकि इन शब्दों से भ्रांति हो सकती है। मैं आपको तो देख सकता है, क्योंकि आप मुझसे अलग हैं, मैं स्वयं को कैसे देखंगा? कौन देखेगा और किसको देखेगा? वहां एक ही है, देखने के लिए दो की जरूरत है। अगर मैं स्वयं को देखू तो जिसको मैं देखूगा वह मैं नहीं हूं; जो देख रहा है वह मैं हूं। मैं सदा ही देखने वाला रहूंगा। मैं दृश्य नहीं बन सकता, मैं सदा द्रष्टा ही रहूंगा। इसलिए लाओत्से कहता है, 'बिना देखे समझते हैं।' वहां देखने का कोई उपाय नहीं है। आप अपने को कैसे देख सकते हैं? देखने के लिए बंटना जरूरी है : कोई देखे, कोई दिखाई पड़े; कोई दृश्य हो, कोई द्रष्टा हो; कोई आब्जेक्ट, कोई सब्जेक्ट। और आप? आप सदा ही देखने वाले हैं। इसलिए आत्म-दर्शन नहीं हो सकता, आत्म-ज्ञान नहीं हो सकता। शब्द के अर्थ में गलत है। वहां तो बिना जाने जानना होगा, और बिना देखे दिखाई पड़ेगा। वहां प्रतीति होगी, एहसास होगा, अनुभूति होगी। लेकिन वहां कोई बंटाव नहीं होगा। वहां दो नहीं होंगे, वहां एक होगा। 'बिना देखे समझते हैं, और बिना कर्म किए सब कुछ संपन्न करते हैं।' सब कुछ करते हैं। संत कोई भाग गया हुआ नहीं है, वह कोई भगोड़ा नहीं है। पलायनवादी तो डरा हुआ आदमी है, वह तो भयभीत है। अगर वह कर्म के जगत में रहा तो उससे गलती हो जाएगी, इसका उसे भय है। अगर उसने स्त्री को देखा तो वासना उठेगी, इसका उसे भय है। अगर उसने धन देखा तो वह मालिक बनना चाहेगा, इसका उसे भय है। अगर उसने पद देखा तो वह पद पर होना चाहेगा, इसका उसे भय है। इसलिए वह भागता है। भागना भय के कारण होता है। जो भागता है वह कमजोर है। भागने वाला समर्थ नहीं हो सकता। भागने का मतलब ही यह है कि मैं भयभीत हूं, मैं डरा हुआ हूं; मैं परिस्थिति छोड़ रहा हूं। संत तो सब कुछ करेगा; करने के जगत में होगा; क्योंकि भय की कोई बात नहीं है। लेकिन यह सारा करना ऐसे होगा जैसे कोई अभिनय कर रहा है। 401
SR No.002374
Book TitleTao Upnishad Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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