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________________ मार्ग स्वयं के भीतर से है ने में दो-तीन बात है कि ज्ञान भातर ही पीछे तो भीतर मौजूद है। क्योंकि हम वही हैं। हमारा होना और उसका, दो भिन्न बातें नहीं हैं। उपनिषदों ने कहा है : तत्वमसि, दैट आर्ट दाऊ। वह तुम ही हो, वह जिसकी हम खोज कर रहे हैं ताओ की, ब्रह्म की, स्वभाव की, धर्म की, आत्मा की। 'जो ज्ञान का जितना ही पीछा करता है, वह उतना ही कम जानता है।' सारी भाषा लाओत्से की पैराडाक्सेस, विरोधाभासों की है। वह कुछ इतनी गहरी बात कहना चाहता है कि उसे केवल विरोधाभास से ही कहा जा सकता है। 'जो ज्ञान का जितना ही पीछा करता है, वह उतना ही कम जानता है।' कठिन लगता है। क्योंकि हम तो ज्ञान का पीछा न करेंगे तो जानेंगे कैसे? लाओत्से यह कह रहा है, पंडित अज्ञानी है। पंडित ज्ञान का पीछा करता है। इस पीछा करने में दो-तीन बातें खयाल ले लेनी जरूरी हैं। पहली बात तो यह, जो भी ज्ञान का पीछा करता है वह यह माने हुए बैठा है कि ज्ञान भीतर नहीं है, कहीं और है; उसका पीछा करना है। पीछा तो हम सदा दूसरे का करते हैं। अपना तो कोई पीछा कैसे करेगा? अपने ही पीछे तो आप कैसे दौड़ सकते हैं? सदा दूसरे के पीछे दौड़ सकते हैं। तो जो भी ज्ञान का पीछा कर रहा है वह ज्ञान को पराया मान रहा है, दूसरा मान रहा है। और ज्ञान की क्षमता भीतर छिपी है; वह आपके स्वयं के होने का गुणधर्म है। इसलिए जो जितना पीछा करेगा उतना ही दूर निकल जाएगा। दूसरी बात, ज्ञान का जो पीछा करता है वह सोचता है कि ज्ञान कोई संपदा है जिसे इकट्ठा किया जा सकता है; जैसे आप तिजोड़ी में धन इकट्ठा कर सकते हैं ऐसे आप ज्ञान भी इकट्ठा कर सकते हैं। ज्ञान कोई संपदा नहीं है। और ज्ञान को जो संपदा मान लेता है वह इनफर्मेशन और जानकारी में ही उलझ जाता है। फिर वह इकट्ठा कर लेता है। वह कितनी ही जानकारी इकट्ठी कर ले सकता है, लेकिन वह जानकारी ज्ञान नहीं बनेगी। ज्ञान तो वह है जो मेरे अनुभव से आता है। जानकारी किसी दूसरे के अनुभव से आती है। महावीर कुछ कहते हैं; वह उनके लिए ज्ञान होगा आपके लिए जानकारी होगी। अगर मैं आपसे कुछ कह रहा हूं, तो हो सकता है वह मेरे लिए ज्ञान हो, आपके लिए जानकारी हो जाएगी। जब तक आपका अनुभव न बन जाए तब तक कोई ज्ञान नहीं होता। पीछा जानकारी का किया जा सकता है, अनुभव का पीछा करने का कोई उपाय नहीं है। अनुभव के लिए तो स्वयं में डूब जाने की जरूरत है। जानकारी के लिए किसी और के पीछे जाने की जरूरत है। इसलिए लाओत्से तो कहता है, गुरु के भी पीछे जाने की जरूरत नहीं है। क्योंकि गुरु के पीछे भी जाने का मतलब यह होगा कि आप कुछ इकट्ठा कर रहे हैं। गुरु की भी जरूरत इतनी ही है कि वह आपको आप में ही भेज दे। गुरु का काम आत्मघाती है। आत्मघाती इसलिए कि गुरु अपनी हत्या कर ले, गुरु जितने जल्दी अपने गुरुपन को मिटा दे और शिष्य को उसके भीतर भेज दे। जितने जल्दी गुरु शिष्य को राजी कर ले कि तू मुझे भूल जा और अपना स्मरण कर; कि मैं नहीं हूं, तू ही है; कि बाहर आंख खोल कर मुझे मत देख, भीतर आंख खोल और अपने को देख; गुरु जितने जल्दी शिष्य को राजी कर ले कि शिष्य सब खिड़कियां बंद करके भीतर डूब जाए, उतना ही समर्थ गुरु है। जो गुरु शिष्य को राजी करे कि तू सदा मेरे पीछे चलता रहे, वह दुश्मन है, वह गुरु तो है ही नहीं। क्योंकि वह किसी बाहर की दिशा पर ले जा रहा है। प्रत्येक को भेज देना है उसके भीतर। बाहर के सारे मोह तुड़वा देने हैं, बाहर के सारे सेतु गिरा देने हैं, बाहर के सारे संबंध काट देने हैं, ताकि शिष्य, कोई उपाय न रह जाए बाहर जाने का, अपने भीतर डूब जाए। 'जो ज्ञान का जितना ही पीछा करता है, वह उतना ही कम जानता है।' इस सूत्र का एक और भी अनूठा अर्थ है जो कि हमें विज्ञान में दिखाई पड़ता है। करता 397
SR No.002374
Book TitleTao Upnishad Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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