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________________ प्रार्थना मांग नहीं, धन्यवाद है वहां वह नहीं मिल सकता। क्योंकि वहां वह है नहीं। मालिक हमारे पास है। इसलिए इस मुल्क में हिंदुओं ने अपने संन्यासी को स्वामी का नाम दिया। उनका प्रयोजन था। स्वामी का मतलब है वह आदमी जिसने बाहर मालकियत खोजना छोड़ दी, जिसने बाहर की स्वामित्व की दौड़ छोड़ दी; जो कहता है, अब बाहर मेरा कुछ भी नहीं है इसलिए संन्यास; जो कहता है, अब मेरा मालिक मेरे भीतर है। - स्वामी भीतर है। वह हमारा स्वभाव है। लेकिन उस तरफ हमारी नजर तभी जाएगी जब वस्तुओं से हमारी नजर हट जाए। जब तक वस्तुओं में हम उलझे हैं तब तक सुविधा नहीं है, जगह नहीं है, खाली स्थान नहीं है, जहां से हम भीतर की तरफ देख सकें। वस्तुओं से पूरा मन भर गया है परिग्रह, स्वामित्व को लाओत्से महापाप इसलिए कह रहा है कि उस दौड़ के कारण ही तुम अपने को पाने से वंचित हो। और जब तक वह दौड़ न छूट जाए तब तक तुम वंचित ही रहोगे। और एक ही बात पाप है कि मुझे मेरा पता नहीं। और क्या पाप हो सकता है? एक ही पाप है कि मैं हूं, और मुझे मेरा अपना अनुभव नहीं। एक ही पाप है कि मैं उत्तर नहीं दे सकता कि मैं कौन हूं। और जब भी आप उत्तर देते हैं तब आप कुछ मालकियत की खबर देते हैं। आप कहते हैं, मैं इस मकान का मालिक हूं कि आप कहते हैं, यह दुकान मेरी है कि आप कहते हैं कि ये पद-पदवियां मेरी हैं; कि ये उपाधियां, यह ज्ञान मेरा है। जब भी आपसे कोई पूछता है आप कौन हैं तो आप कुछ बताते हो जिसके आप मालिक हो। आप कभी नहीं बताते कि आप कौन हो। उसका आपको पता भी नहीं है। __ वह कौन है जो मालकियत की दौड़ में दौड़ रहा है? वह कौन है जो संग्रह करना चाहता है और सारी पृथ्वी पर साम्राज्य निर्मित करना चाहता है? वह कौन है पीछे छिपा हुआ? उसका अनुभव ही पुण्य है। और जो चीजें उसके अनुभव से रोकती हैं वही पाप हैं। जो दूसरे का मालिक होना चाहता है वह अपना मालिक नहीं हो पाएगा। और जिसे अपना मालिक होना है उसे दूसरों की सारी मालकियत छोड़ देनी चाहिए। उसे सब दावे छोड़ देने चाहिए। वह दावे से शून्य हो जाना चाहिए। अगर ठीक से समझें तो घर छोड़ने का, गृहस्थी छोड़ने का, पत्नी, पति या बच्चे या धन छोड़ने का वास्तविक प्रयोजन घर, पत्नी और बच्चा छोड़ना नहीं है, मालकियत का भाव छोड़ना है। कोई पत्नी को छोड़ कर पहाड़ पर भाग जाए, इससे कुछ हल नहीं होता। घर में पत्नी के पास रहे या पहाड़ पर रहे, इससे कुछ बहुत फर्क नहीं पड़ता। मालकियत का भाव! एक जैन मुनि के संबंध में मैं पढ़ता था। वे बड़े ख्यातिलब्ध थे। बहुत उनके भक्त थे। अभी-अभी कुछ वर्षों पहले उनकी मृत्यु हुई। उनकी जीवन-कथा में लेखक ने, जिसने उनका जीवन लिखा है, बड़ी प्रशंसा और स्तुति के भाव से एक घटना दी है। घटना है कि घर छोड़े कर, पत्नी को छोड़ कर बीस वर्ष बाद-वे काशी में थे। पत्नी की मृत्यु हुई। पत्नी को छोड़े बीस वर्ष हो चुके हैं। पत्नी की मृत्यु हुई, घर से तार गया। तो उन मुनि ने तार देख कर कहा कि चलो, झंझट मिटी। मैं थोड़ा हैरान हुआ, जब मैंने जीवनी में यह पढ़ा। बीस साल बाद पत्नी का मरना और मुनि का यह कहना कि कि चलो, झंझट मिटी। साफ है कि झंझट जारी थी। यह कोई सोचा-विचारा हुआ वक्तव्य नहीं है, यह तो सहज निकला तार के देखते ही। इसका मतलब है कि बीस साल भीतर झंझट जारी थी। अन्यथा पत्नी को बीस साल पहले छोड़ चुके; अब उसके मरने से झंझट मिटने का क्या संबंध? नहीं, पत्नी इतनी आसानी से नहीं छूटती। और जब उसके मरने पर ऐसा भाव पैदा होता है कि झंझट मिटी, तो जरूर उसको मार डालने की कामना कहीं न कहीं छिपी रही होगी। __ पति अक्सर पत्नियों को मार डालने का सोचते हैं। पत्नियां अक्सर पतियों को मार डालने का सोचती हैं। नहीं मारते यह दूसरी बात है, लेकिन उपाय मन में चलता है अनेक ढंग से। अनेक पत्नियां डरती हैं, पति बाहर गया तो A . 381
SR No.002374
Book TitleTao Upnishad Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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