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ताओ उपनिषद भाग ४
है। लेकिन स्वयं को जानना अति कठिन है। और मैंने अभी तक ऐसी कोई किताब नहीं देखी जो कहती होः हाउ टु इनफ्लुएंस योरसेल्फ। हाउ टु इनफ्लुएंस अदर्स, कैसे दूसरों को प्रभावित करें। लेकिन कैसे स्वयं को प्रभावित करें? कैसे स्वयं को जानें? उसमें कुछ रस ही नहीं है किसी को। कारण क्या होगा?
एक भ्रांति है हमारे मन में कि स्वयं को तो हम जानते ही हैं। रह गया दूसरा, वह अनजाना है, उसे जानना है। इस भ्रांति को तोड़ना जरूरी है। आप स्वयं को नहीं जानते हैं; दूसरे को भला थोड़ा-बहुत जानते हों, अपने को बिलकुल नहीं जानते। लेकिन तब एक और अजीब घटना घटती है। जो अपने को ही नहीं जानता, वस्तुतः क्या वह दूसरे को जान सकेगा?
यह जरा और गहरे में उतरने की बात है। जो अपने को ही नहीं जानता, उसको दूसरे का भी जानना कितना सार्थक और अर्थपूर्ण हो सकता है। जिसकी अपने संबंध में भी कोई अनुभूति नहीं है, उसकी दूसरे के संबंध में जो भी जानकारी होगी, वह भी छिछली ही होगी। वह भी दूसरे के गहरे में तो प्रवेश नहीं कर पाएगा। उसके आस-पास घूम सकता है, उसके संबंध में कुछ जान सकता है; उसको नहीं जान सकता। उसका चेहरा कैसा है, जान सकता है; उसकी आंखें कैसी हैं, जान सकता है; उसका व्यवहार कैसा है, जान सकता है।
आधुनिक मनोविज्ञान में एक स्कूल का नाम बिहेवियरिस्ट है, व्यवहारवादी। इन मनोवैज्ञानिकों की धारणा है कि आदमी के पास आत्मा जैसी कोई चीज नहीं; सिर्फ उसका व्यवहार ही सब कुछ है, भीतर कुछ है ही नहीं। बस वह बाहर जो करता है उसी के जोड़ का नाम आत्मा है। तो अगर आप आदमी का पूरा व्यवहार जान लें तो व्यवहारवादी मनोवैज्ञानिक कहते हैं, आपने आदमी को जान लिया। आप क्या करते हैं, वही आप हैं। अगर आपके करने को पूरा समझ लिया तो बात खत्म हो गई। भीतर कुछ है ही नहीं। अगर ठीक से समझें तो ईश्वर का इनकार करना इतनी बड़ी नास्तिकता नहीं है जितनी बड़ी नास्तिकता व्यवहारवाद है। क्योंकि वह यह कह रहा है कि सिर्फ कृत्य, जो आप कर रहे हैं।
लेकिन ऐसा मत सोचना कि व्यवहारवादी कोई नई धारणा है। आप में से सौ में से निन्यानबे लोग व्यवहारवादी हैं। आप भी व्यक्ति को उसके कृत्य से पहचानते हैं, और तो कोई पहचान नहीं है। आप देखते हैं एक आदमी चोरी कर रहा है, इसलिए चोर है; और एक आदमी पूजा कर रहा है, इसलिए संत है। आप भी देखते हैं कि क्या कर रहा है। क्या है, यह तो दिखाई पड़ता नहीं। चोर के भीतर क्या है, यह तो दिखाई पड़ता नहीं। संत के भीतर क्या है, यह तो दिखाई पड़ता नहीं। चोर चोरी कर रहा है, यह दिखाई पड़ता है। संत प्रार्थना कर रहा है, यह दिखाई पड़ता है। और हो सकता है संत प्रार्थना करते समय चोर हो और चोर चोरी करते समय संत हो। लेकिन वह बड़ी मुश्किल बात है। वह पहचानना बहुत कठिन है।।
सुना है मैंने कि मुल्ला नसरुद्दीन मरने के करीब था। तो उसने एक रात, जब कि चिकित्सक कह चुके कि अब कल सुबह तक बचना बहुत मुश्किल है, परमात्मा से प्रार्थना की कि मैंने जिंदगी भर प्रार्थनाएं कीं, कभी कोई पूरी नहीं हुई; अब यह आखिरी वक्त भी करीब आ गया; एक आखिरी प्रार्थना तो कम से कम पूरी कर दो! और वह प्रार्थना यह है कि मरने के पहले मुझे देखने मिल जाए स्वर्ग और नरक, ताकि मैं तय कर सकू कि कहां जाना उचित है। .
वह आदमी बुद्धिमान था; सब कदम सोच-समझ कर उठाने चाहिए।
नींद लगी और उसने देखा कि वह स्वर्ग के द्वार पर खड़ा है। प्रार्थना पूरी हो गई है, स्वीकृत हो गई है। उसने भीतर प्रवेश किया। वह देख कर बड़ी मुश्किल में पड़ गया। क्योंकि जैसा सुना था, शास्त्रों में पढ़ा था कि वहां शराब के चश्मे बहते हैं और अप्सराएं और सुंदर स्त्रियां और कल्पवृक्ष जिनके नीचे बैठ कर सभी इच्छाएं तत्क्षण पूरी हो जाती हैं, वे वहां कुछ भी दिखाई न पड़े। और बड़ा सन्नाटा था, बड़ा बेरौनक सन्नाटा था। और लोग कुछ भी नहीं कर रहे थे।
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