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वह पूर्ण है और विकासमान भी
लाओत्से कहता है, ऐसा व्यक्ति, ऐसी चेतना सष्टि की मार्गदर्शक हो जाती है।
सहज, स्वभावतः, ऐसे व्यक्ति के पास लोग आने लगते हैं। कोई अनजानी शक्ति उन्हें खींचने लगती है; कोई अदृश्य पुकार उन्हें उसके पास लाने लगती है। वह उसके भीतर जो प्रशांति घटित हुई है वह मैग्नेटिक फोर्स हो जाती है। उसके पास, जैसे कोई घने वृक्ष की छाया में राहगीर चलता हुआ विश्राम करने को रुक जाता है। न तो वृक्ष बुलाता, न वृक्ष निमंत्रण देता, लेकिन वृक्ष का होना ही निमंत्रण बन जाता है; थका राही उसके नीचे रुक कर विश्राम कर लेता है। ठीक वैसे ही प्रशांत हुए व्यक्ति के पास भी अनजाने अनेक-अनेक रास्तों से, अनेक-अनेक कारणों से लोग आने लगते हैं। स्वाभाविक है कि प्यासा कुएं के पास चला जाए। वैसा ही स्वाभाविक है कि जो अशांत है और जिसका मन उत्तेजना और गर्मी से भरा है, वह उसके पास चला आए जहां शांति मिल सकती है, जहां एक हवा का शीतल झोंका मिल सकता है, जहां दो घंट उस शांति को पीया जा सकता है।
'जो निश्चल और प्रशांत है, वह सृष्टि का मार्गदर्शक बन जाता है।'
और वही केवल मार्गदर्शक बन सकता है; मार्गदर्शक जो बनना चाहते हैं वे नहीं। क्योंकि कुछ बनने की चेष्टा अशांति का लक्षण है। जो गुरु बनना चाहते हैं वे गुरु होने की योग्यता खो देते हैं। क्योंकि उस बनने में भी महत्वाकांक्षा है; उस बनने में भी अभी उत्ताप है; वह बनना भी एक बेचैनी है। वह एक नया आयाम है, लेकिन वासना का ही। सदगुरु वही है जो गुरु बनना नहीं चाहता, लेकिन जिसके पास लोग आकर शिष्य बनना चाहते हैं।
हालतें उलटी हैं। शिष्य कोई बनना नहीं चाहता; गुरु काफी हैं। और गुरुओं में बड़ी कलह रहती है कि कोई किसी का शिष्य न खींच ले। गुरु बड़ी चेष्टा में लगे रहते हैं कि उनका शिष्य कहीं और न चला जाए, किसी और की बात न सुन ले, कहीं भटक न जाए। भटकने का मतलब किसी और के पास न चला जाए। उनके अतिरिक्त सब जगह भटकाव है। तो गुरु बड़ी ईर्ष्या से, बड़ी जलन से सुरक्षा में लगे रहते हैं। इससे ही संप्रदाय खड़े होते हैं। संप्रदायों के खड़े होने का कारण गुरुओं की ईर्ष्याएं हैं। लेकिन जिस गुरु में ईर्ष्या हो और जो भयभीत हो कि कहीं कोई चला न जाए, वह गुरु ही नहीं है।
एक मित्र ने मुझे आकर कहा कि उनके गुरु ने उन्हें कहा है कि अगर वे मेरे पास आए तो ठीक नहीं होगा; यह वैसे ही है जैसे कोई अपने पति को छोड़ कर पत्नी किसी के पास चली जाए।
पति-पत्नी का संबंध गुरु-शिष्य बना कर बैठ जाते हैं। गुरु समझा रहा है कि कहीं जाना मत! यह तो वही है जैसे पत्नी पति को छोड़ कर कहीं चली जाए; जब एक गुरु बना लिया तो बस यहीं रुकना। . रोकने की चेष्टा क्या है? जरूरत क्या है? प्रयोजन क्या है? और रोकने से कहीं कोई रुकता है?
पर रोकने में कोई वासना है। गुरु भयभीत है, क्योंकि शिष्यों के बिना वह गुरु न हो सकेगा। इसलिए उसकी गुरुता शिष्यों पर निर्भर है।
इस फर्क को ठीक से समझ लें। जिस गुरु की लाओत्से बात कर रहा है उसकी उस गुरुता के लिए शिष्यों का होना जरूरी नहीं है; उस गुरुता के लिए भीतर की प्रशांति का होना जरूरी है। कोई एक भी शिष्य न हो तो वह व्यक्ति गुरु है। और भीतर की प्रशांति न हो और लाखों शिष्य हों तो भी वह व्यक्ति गुरु नहीं है। क्योंकि नासमझों की भीड़ को इकट्ठा कर लेने में जरा भी कठिनाई नहीं है। थोड़ी सी होशियारी, थोड़ी सी दुकानदारी, और लोग इकट्ठे हो जाते हैं। वह तो बड़ा सरल काम है। इसलिए बिलकुल बुद्धिहीन लोग भी कर लेते हैं। इसलिए गुरुओं में ढेर मिलेंगे जो निपट बुद्धिहीन हैं, मगर इतने कुशल हैं कि शिष्य इकट्ठे कर लेते हैं।
लाओत्से कह रहा है कि जो व्यक्ति निश्चलता को, भीतर की अगति को उपलब्ध हुआ, प्रशांत हुआ, वह सृष्टि का मार्गदर्शक बन जाता है।
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