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________________ ताओ उपनिषद भाग ४ मार पहचानग। आप अनुभव करते हैं कि शक्ति वापस लौट आई। जो सेल्स टूट गए थे, कोष्ठ मिट गए थे, वे पुनः निर्मित हो गए। शरीर फिर जवान है। जो थकान, जो-जो यंत्र में खराबियां आ गई थीं, रात के विश्राम ने उनको फिर ठीक कर दिया। ठीक चौथे चरण में, तुरीय में पहुंच कर, इस अगति में पहुंच कर ऐसा ही मन भी ताजा हो जाता है। और बड़े गहरे स्रोत से, सारे शरीर की जो भी विकृति है, मन की जो भी बेचैनी है, जहां-जहां व्यर्थ का कूड़ा-करकट और कचरा इकट्ठा है, वह सब समाप्त हो जाता है, तिरोहित हो जाता है। जब आप वहां से वापस आते हैं तो आप इस शरीर को, इस जगत को बिलकुल दूसरी आंख और दूसरे ढंग से देखेंगे और पहचानेंगे। इस गति के जगत से अगति के जगत में उतरने की कला जो सीख ले और निरंतर गति से अगति में जाए. अगति से फिर गति में लौट आए, और जैसे दिन और रात होते हैं ऐसा गति और अगति में संतुलन साध ले, तो लाओत्से कहता है कि जो दो अतियों के बीच संतुलन और संगीत को पकड़ लेता है वह परम ताओ को, परम स्वभाव को उपलब्ध हो जाता है। अगति में जाने का यह अर्थ नहीं है कि फिर आप अगति में ही बैठे रहें। अगति में जाने का यही अर्थ है कि आप वापस गति में लौट आएं, सारी ताजगी और सारे आनंद को लेकर। धीरे-धीरे, क्रिया करते हुए भी भीतर - अक्रिया बनी रहेगी। धीरे-धीरे, काम करते हुए भी भीतर बिलकुल कोई काम नहीं होगा। आप दौड़ते रहेंगे, और भीतर कोई भी नहीं दौड़ेगा; भीतर सब ठहरा रहेगा। जिस दिन दोनों बातें एक साथ सध जाती हैं उस दिन मुक्ति फलित हो जाती है। दो तरह के लोग हैं। और लाओत्से चाहता है, आप तीसरे तरह के व्यक्ति हों। एक तो वे लोग हैं जो गति में पड़े हैं और अगति में नहीं जा सकते। कुछ इनमें से ही भाग कर अगति में चले जाते हैं तो गति से डरने लगते हैं। फिर वे जंगल में छिप जाते हैं, गुहा में, गुफा में बैठ जाते हैं। फिर वे भयभीत होते हैं कि अगर हम यहां से बाहर निकले तो गति फिर पकड़ लेगी। ये दोनों एक जैसे लोग हैं। इन्होंने जीवन के एक पहलू को पकड़ लिया। लेकिन ये दोनों दरिद्र हैं। क्योंकि समृद्धि उसी के पास होती है जिसके पास जीवन के दोनों पहलू होते हैं; जो अगति में उतर सकता है और गति में आ सकता है-निर्भीक। उसको अगति के खोने का कोई डर नहीं है। वह संपदा उसकी भीतरी है। जो युद्ध के मैदान पर भी खड़ा हो सकता है, और जिसके ध्यान में रत्ती भर फर्क नहीं पड़ेगा। जो दुकान पर बैठ सकता है, और जिसके मंदिर में इससे कोई हलचल नहीं आती। जब कोई व्यक्ति इन दोनों में आता है, जाता है, धीरे-धीरे-धीरे इतनी सहज हो जाती है यह घटना, जैसे अपने मकान के बाहर आना और भीतर जाना, बाहर आना और भीतर जाना। 'गति से ठंडक दूर होती है, लेकिन अगति से गर्मी परास्त होती है। जो निश्चल और प्रशांत है, वह सष्टि का मार्गदर्शक बन जाता है।' निश्चल और प्रशांत! जो इस भीतर के तत्व को पकड़ लेता है जो न कभी चला और न चलता है, चलना जिसके आस-पास हो रहा है, सारा परिवर्तन का चाक जिस कील के आस-पास घूम रहा है, लेकिन जो कील ठहरी हुई है, वह जो अनमूविंग सेंटर है जिसके आस-पास सारी गति और परिवर्तन हो रहा है, उस परम स्थिर को जो पहचान लेता है, वह प्रशांत हो गया, वह निश्चल हो गया। - इसका यह मतलब नहीं है कि वह जड़ हो गया। इसका यह मतलब नहीं है कि वह बैठ गया, पत्थर की मूर्ति हो गया। वह काम के जगत में होगा, क्रिया के जगत में होगा, वह संसार में खड़ा होगा। लेकिन अब संसार ही चलेगा, वह नहीं चलेगा। उसका शरीर चलेगा, वह नहीं चलेगा। उसका यंत्र काम करेगा, लेकिन यंत्र के भीतर छिपा हुआ मालिक शांत ही रहेगा। 362
SR No.002374
Book TitleTao Upnishad Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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