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________________ ऑर विकासमान भी वह पूर्ण आपसे कोई पूछता कि सत्य क्या है तो चुप रहना बहुत मुश्किल होता। हालांकि आपको पता नहीं है। आपसे कोई पूछ ही ले, कुछ भी पूछ ले, आप चुप नहीं रह सकते। जिस संबंध में आपको कुछ भी पता नहीं है, उस संबंध में भी आप कुछ कहेंगे। मैं लोगों से पूछता हूं, ईश्वर है? कोई कहता है, है; कोई कहता है, नहीं है। लेकिन ऐसा आदमी कभी नहीं मिलता जो कहता है, मुझे पता नहीं। वह ईमानदार का लक्षण है; ये बेईमानों के लक्षण हैं। ईश्वर का कोई भी पता नहीं है और जोर से कहते हैं, है। या कहते हैं, नहीं है। ये दोनों ही बेईमान के लक्षण हैं। बेईमान ही इस जगत में आस्तिक और नास्तिकों में बंटे हुए हैं। ईमानदार आदमी कैसे आस्तिक हो सकता है? कैसे नास्तिक हो सकता है? ईमानदार आदमी तो इस बात को पहले समझेगा कि मुझे कुछ भी पता नहीं है, तो मैं कैसे चुनाव करूं कि मैं इस तरफ हूं कि उस तरफ हूं? ईश्वर है या नहीं है? मुझे अपने होने का भी कुछ पता नहीं है; ईश्वर के होने के संबंध में मैं कैसे कोई वक्तव्य दूं? ईमानदार आदमी एग्नास्टिक होगा। ईमानदार आदमी स्वीकार करेगा, मुझे पता नहीं है। वह कहेगा कि अज्ञात है, मुझे कुछ पता नहीं है, मैं अज्ञानी हूं। और ऐसा व्यक्ति शायद कभी सत्य को पाने में समर्थ हो जाए। मगर वे बेईमानों की दो कोटियां, वे कभी भी सत्य को नहीं पा सकतीं। लाओत्से कहता है, 'सर्वाधिक प्रचरता स्वल्प की भांति है।' जितना ज्यादा होता है उतना ही उसका बोध खोने लगता है। अगर सब कुछ आपके पास हो तो आपको पता भी नहीं रह जाएगा कि मेरे पास कुछ है। जब तक आपको पता है तब तक जाहिर है कि आपके पास बहुत अल्प है, और उससे कष्ट हो रहा है। पीड़ा का ही बोध होता है। पैर में कांटा चुभता है तो पैर का पता चलता है। सिर में दर्द होता है तो सिर का पता चलता है। सिर में दर्द न हो तो सिर का पता नहीं चलता; पैर में कांटा न चुभा हो तो पैर का पता नहीं चलता। शरीर स्वस्थ हो तो पता ही नहीं चलता कि है; अस्वस्थ हो, पीड़ा हो, तो पता चलता है। पीड़ा का ही पता चलता है। अगर आपको अपने धन का पता चल रहा है तो धन के साथ कहीं पीड़ा जुड़ी है, कहीं कोई कष्ट जुड़ा है, कहीं कोई कांटा चुभ रहा है, कहीं कोई दर्द है, कोई घाव छिपा है। जिन लोगों के पास नया-नया धन होता है उन्हें पहचानने में जरा भी कठिनाई नहीं है, क्योंकि वे धन को उछालते चलते हैं। कुलीन घरों का पुराने दिनों में यही लक्षण था कि जिनके पास धन बहुत हो और जो उसे उछालते न हों। उसका मतलब था कि उनके पास धन परंपरा से है, सदियों से है, पीढ़ियों से है; धन का उन्हें पता नहीं रह गया है। जो आज ही धन कमा ले, उसका धन पागल हो जाता है; वह सब तरफ उसे दिखाने की कोशिश में लगता है। उसे अभी अपनी गरीबी भूली नहीं है। इसलिए नए अमीर का पता चलने में कोई कठिनाई नहीं है। अमीरी-किसी भी आयाम में-तभी फलित होती है जब उसके पीछे जुड़ी हुई पीड़ा खो जाती है। अगर बुद्ध और महावीर अपना राज्य छोड़ सके तो इसीलिए छोड़ सके। हमें लगता है कि उनके पास इतना ज्यादा था, क्योंकि हम गणना करते हैं; उन्हें उसका पता ही नहीं रहा होगा। वह इतना स्वल्प हो गया था कि उसे छोड़ना, न छोड़ना बराबर था। महावीर के जीवन में बड़ा मधुर उल्लेख है। महावीर ने चाहा कि मैं संन्यास ले लूं। तो महावीर की मां ने कहा, जब तक मैं जिंदा हूं, तुम बात ही मत करना। आमतौर से संन्यास लेने वाला बेटा इस तरह रुक नहीं सकता; बल्कि अगर इस तरह बाधा डाली जाए तो संन्यास लेने वाला बेटा कल लेता हो तो आज ले लेगा। बाप और बेटों में, पीढ़ियों में, बड़ा गहरा तनाव और संघर्ष है। लेकिन महावीर ने बात ही नहीं उठाई। मां भी चिंतित हुई होगी। उसने भी सोचा होगा, यह किस भांति का संन्यास था; जो एक दफा पूछा और मैंने कहा कि जब तक मैं हूं मत लेना, महावीर बात ही बंद कर दिए। |355
SR No.002374
Book TitleTao Upnishad Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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