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________________ ति सरल, लेकिन अति जटिल भी यह सूत्र है। अतियां समान हो जाती हैं। शून्य और पूर्ण बिलकुल एक जैसे हैं। जो शून्य की परिभाषा है वही पूर्ण की भी। शून्य भी अनादि और अनंत है; पूर्ण भी अनादि और अनंत है। न तो शून्य की कोई सीमा है; न पूर्ण की कोई सीमा है। शून्य की इसलिए सीमा नहीं हो सकती कि वह छोटे से छोटा है। और सीमा बनानी हो तो उतने छोटे पर कोई सीमा नहीं बनती। पूर्ण इसलिए असीम है कि वह बड़े से बड़ा है। सीमा बनानी हो तो उतने विराट पर कोई सीमा नहीं बनती। देखने में दोनों विपरीत मालूम होते हैं; देखने में एक-दूसरे के निषेध मालूम होते हैं। लेकिन चाहे कोई शून्य में उतर जाए और चाहे कोई पूर्ण में, वे एक ही जगह पहुंच जाएंगे। __ शंकर पूर्ण की बात करते हैं, बुद्ध शून्य की। और जो केवल शास्त्र में ही उलझे रहते हैं उन्हें लगेगा कि शंकर और बुद्ध विपरीत हैं। लेकिन जिन्होंने अनुभव से जाना है, शंकर और बुद्ध उन्हें एक ही बात कहते हुए मालूम पड़ेंगे। उनके शब्दों का चुनाव भिन्न है; उनका इशारा एक है। शंकर कहते हैं, सब कुछ। और बुद्ध कहते हैं, कुछ भी नहीं। लेकिन दोनों असीम की ओर इशारा करते हैं, अपरिभाष्य की ओर, अव्याख्य की ओर।। जन्म और मृत्यु हमें विपरीत दिखाई पड़ते हैं। लेकिन जन्म और मृत्यु बिलकुल एक जैसे हैं। जन्म के पहले आप क्या थे, वही आप मृत्यु के बाद हो जाएंगे। जन्म के पहले देह न थी; मृत्यु के बाद भी देह न होगी। जन्म के पहले का भी आपको कोई स्मरण नहीं है अभी, मृत्यु के बाद का भी आपको कोई बोध नहीं। जन्म के पहले जैसे असीम के साथ एक थे, वैसे मृत्यु के बाद भी असीम के साथ एक हो जाएंगे। जैसा जन्म व्याख्या के पार है, वैसे ही मृत्यु भी व्याख्या के पार है। जन्म हमें पहले मालूम पड़ता है, मृत्यु बाद में; सिर्फ इतने से कोई फर्क नहीं पड़ जाता। ऐसा ही समझें कि जैसे कोई एक वर्तुल में यात्रा शुरू करे, एक सर्कल में, तो जिस बिंदु से यात्रा शुरू होगी उसी बिंदु पर यात्रा का अंत भी होगा। जो प्रथम बिंदु होगा चलने का वही अंतिम बिंदु भी होगा पहुंचने का। और इस जगत में सभी कुछ वर्तुलाकार है। न केवल पृथ्वी, चांद, तारे, सूरज; जीवन की सारी गति वर्तुलाकार है। मौसम घूमते हैं एक वर्तुल में, पृथ्वी एक चक्कर लगाती वर्तुल में, सूर्य किसी महासूर्य का परिभ्रमण करता है। और आइंस्टीन के हिसाब से सारा ब्रह्मांड भी किसी केंद्र का परिभ्रमण कर रहा है। सारा परिभ्रमण वर्तुलाकार है। जहां से यात्रा शुरू होती है वहीं यात्रा का अंत है। आदमी का जीवन भी भिन्न नहीं हो सकता। जन्म और मृत्यु एक हैं। लेकिन जन्म को हम प्रेम करते हैं, आकांक्षा करते हैं; मृत्यु से हम भयभीत होते हैं, बचना चाहते हैं। बुद्ध ने कहा है, जिसने जन्म को चाहा उसने मृत्यु को मांग ही लिया। और जिसे मृत्यु से बचना हो उसे जन्म की चाह छोड़ देनी होगी। क्योंकि वे दोनों एक हैं। हमें भिन्न 347
SR No.002374
Book TitleTao Upnishad Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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