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________________ ताओ उपनिषद भाग ४ आत्मा पाने की बात; उसको भी और संग्रह में एक संग्रह बना लेना चाहता है। मेरे पास धन भी है, पद भी है, चरित्र भी है, आत्मा भी मेरे पास है। वह भी उसकी लंबी फेहरिस्त में, उसकी संपत्ति में, उसके स्वामित्व में एक हिस्सा बनाना चाहता है। जीसस उसे सीधे राह पर खड़ा कर देते हैं कि या तो तू यह सब छोड़ दे। जीसस ने निकोडेमस से ही वह वचन कहा है जो बहुत प्रसिद्ध हो गया कि सुई के छेद से ऊंट भला निकल जाए, लेकिन स्वर्ग के राज्य में धनी आदमी प्रवेश न कर सकेगा। यह जो धनी आदमी का विरोध है, यह धन का विरोध नहीं है; यह उसकी पकड़ का विरोध है। इसे हम ऐसा समझें कि अगर हम कहें कि एक आदमी जो हाथ में कंकड़-पत्थर पकड़े हुए है, यह कभी भी अपने हाथ में हीरे-मोती न पकड़ सकेगा; बस ऐसा ही मतलब है। क्योंकि जब तक यह कंकड़-पत्थर पकड़े हुए है तब तक इसे एक तो हीरे-मोती दिखाई नहीं पड़ सकते; यह कंकड़-पत्थर को हीरे-मोती समझ रहा है, इसीलिए तो पकड़े हुए है। और जब तक इसके हाथ कंकड़-पत्थर से भरे हैं और खाली नहीं हैं कि हीरे-मोती को सम्हाल सकें तब तक यह उनको पकड़ेगा कैसे? वस्तुओं पर गहरी पकड़ इस बात की खबर है कि आत्मा का कोई भी स्वर भी सुनाई नहीं पड़ रहा है, उसका जरा सा भी स्वाद नहीं आ रहा है। नहीं तो यह पकड़ छूट जाए। धन छूटे या न छूटे, यह बड़ा सवाल नहीं है। पकड़ छूट जानी चाहिए। मैं समझता हूं कि अगर निकोडेमस कहता कि अच्छा, मैं जाता हूं, सब लुटा कर आ जाता हूं; तो शायद जीसस ने कहा होता, कोई जरूरत नहीं। लेकिन इतनी हिम्मत निकोडेमस नहीं जुटा पाया। क्योंकि कोई बात न थी। अगर जनक धन के बीच रह कर और आत्मा को पा सकते हैं तो निकोडेमस भी पा सकता था। लेकिन सवाल वह नहीं था। निकोडेमस ने कहा कि नहीं, यह मुझसे न हो सकेगा; कोई और रास्ता बता दें। वह तैयार हो जाता तो मेरी प्रतीति सदा यह रही है कि जीसस ने कहा होता, तब फिर कोई जरूरत नहीं है। तब धन जहां है वहां है; तू स्वयं की खोज में लग सकता है। तेरी कोई पकड़ नहीं है, क्लिगिंग नहीं है। 'जो बहुत संग्रह करता है, वह बहुत खोता है। संतुष्ट आदमी को अप्रतिष्ठा नहीं मिलती।' जरा मुश्किल होगी समझने में। क्योंकि प्रतिष्ठा और अप्रतिष्ठा तो दूसरों से मिलती है। लेकिन लाओत्से कहता है, 'संतुष्ट आदमी को अप्रतिष्ठा नहीं मिलती।' इसका अर्थ बड़ा और है। लाओत्से यह कह रहा है कि तुम चाहे उसे कितना ही अप्रतिष्ठित करो, तुम उसे अप्रतिष्ठित नहीं कर सकते। तुम्हारे हाथ में कोई उपाय ही नहीं है कि तुम संतुष्ट आदमी को अप्रतिष्ठित कर सको। तुम उसे हिला नहीं सकते; वह जहां है वहां से तुम उसे रत्ती भर नीचे नहीं उतार सकते। संतुष्ट का मतलब ही यह है कि कुछ भी हो जाए, तुम उसे असंतुष्ट नहीं कर सकते। और जिसको तुम असंतुष्ट नहीं कर सकते उसको अप्रतिष्ठित कैसे करोगे? संतुष्ट का अर्थ समझ लें। जो भी है, वह उससे राजी है; और जो भी नहीं है, उसकी उसे आकांक्षा नहीं है। अगर उसे तुम अप्रतिष्ठित कर दो तो वह अप्रतिष्ठा से राजी हो जाएगा। तुम उसे बदनाम करो, वह बदनामी से राजी हो जाएगा। तुम उसे गाली दो, वह गाली स्वीकार कर लेगा। एक कहानी मैं निरंतर कहता रहा हूं। जापान के एक गांव में एक युवक संन्यासी पर आरोप है कि एक युवती गर्भवती हो गई है, उसे बच्चा हुआ है, और उसने संन्यासी का नाम ले दिया। सारा गांव इकट्ठा हो गया। उस लड़की के पिता ने उस एक दिन के बच्चे को संन्यासी के ऊपर लाकर रख दिया, और कहा कि सम्हालो, यह बच्चा तुम्हारा है! उस संन्यासी ने इतना ही पूछा, इतना ही कहा, इज़ इट सो? क्या ऐसी बात है? और तब वह बच्चा रोने लगा तो वह बच्चे को समझाने में लग गया। भीड़ उसके झोपड़े में आग लगा कर वापस लौट गई। 340
SR No.002374
Book TitleTao Upnishad Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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