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________________ स्वयं का ज्ञान ही ज्ञान है है उसमें सख दिखाई पड़ता है। न तो गरीबी में सख है, न धनी होने में सुख है। सुख सदा आशा है-वहां, जहां हम नहीं हैं। और जहां हम हो जाते हैं वहीं दुख हो जाता है। धनी धन छोड़ सकता है, क्योंकि गरीबी में सुख की आशा बनी है। पद छोड़े जा सकते हैं, क्योंकि पदों को छोड़ कर भी बड़ी प्रतिष्ठा मिलती है। सच तो यह है कि पदों को छोड़ कर ही प्रतिष्ठा मिलती है। जो प्रतिष्ठा पाने की कला जानता है वह पद को छोड़ देगा। क्योंकि पद छोड़ते से ही आपको लगता है कि यह आदमी पद से बड़ा हो गया। नहीं तो छोड़ कैसे सकता? छोटा आदमी तो पदं को पकड़ता है। यह पद को लात मार सकता है, सिंहासन को लात मार सकता है; यह आदमी सिंहासन से बड़ा हो गया। लेकिन जो छोड़ रहा है वह भी गणित जमा सकता है, उसको भी पता है कि छोड़ने में भी लाभ है। धन छोड़ने में अड़चन ज्यादा नहीं है; पद छोड़ने में कठिनाई ज्यादा नहीं है। लेकिन ज्ञान छोड़ने में बड़ी कठिनाई है क्योंकि अज्ञान में कोई भी आशा नहीं बंधती। और लाओत्से जैसे थोड़े से परम ज्ञानियों को छोड़ कर अज्ञान की कोई शिक्षा भी नहीं देता। अज्ञान से ही तो हम परेशान हैं; तो ज्ञान से अपने को भर रहे हैं। यह जो ज्ञान से भरना है, यह आपको विद्वान बना देगा। तो विद्वान वह अज्ञानी है जिसने अपने को उधार ज्ञान से भर लिया। अज्ञान मिटता नहीं, सिर्फ दबता है। जैसे आप नग्न हैं और वस्त्र पहन लिए; तो नग्नता मिटती नहीं, सिर्फ ढंकती है; अब किसी को दिखाई नहीं पड़ती। और किसी को न दिखाई पड़े यह तो ठीक ही है, आपको भी दिखाई नहीं पड़ती, जो कि चमत्कार है। क्योंकि कपड़े आपके बाहर हैं, दूसरों की आंखों पर हैं कपड़े; आपके ऊपर नहीं हैं। वेटिकन का पोप जब किसी को मिलता है तो विशेष वस्त्र पहनने होते हैं। स्त्रियां हों तो सिर ढांकना होता है; पुरुष हों तो सिर ढांकना होता है। खास तरह के कपड़े, सादे, पहन कर प्रवेश करना होता है। एक बारह अमरीकनों की मंडली वेटिकन के पोप के दर्शन के लिए गई। तो जिस आदमी ने उन्हें समझाया कि आप कैसे कपड़े पहनें, कैसे भीतर खड़े हों, कैसे नमस्कार करें, वह भी उनको समझाने से थोड़ा व्यथित था। और उसने भी कहा कि क्षमा करना, मजबूरी है, मैं इसी काम पर नियुक्त हूं, यही मेरी रोटी-रोजी है, लेकिन लोगों को समझाते-समझाते में परेशान हो गया हूं और मेरे मन में भी कभी होता है कि इससे तो बेहतर होता एक पट्टी पोप की आंख पर ही बांध दी जाती; वह सरल होती बजाय इतना उपद्रव करने के। लेकिन यह इतना बड़ा उपद्रव भी दूसरे की आंख पर पट्टी का ही काम करता है, इससे ज्यादा का काम नहीं करता। पट्टी बड़ी है; लेकिन आंख दूसरे की है, उसको भर रुकावट डालती है, उसको पता नहीं चलता कि आप नग्न हैं। लेकिन आप तो नग्न हैं ही। विद्वान भी दूसरे की आंखों में विद्वान मालूम पड़ता है, अपने भीतर तो अज्ञानी ही होगा, नग्न ही होगा। लेकिन जैसा आप चमत्कार कर लेते हैं और कपड़े पहन कर सोचते हैं आप नग्न नहीं, वैसा ही पंडित भी चमत्कार कर लेता है, शब्दों को ओढ़ कर सोचता है कि अब अज्ञान समाप्त हुआ, अब मैं ज्ञानी हुआ। और इन शब्दों में एक भी उसका अनुभूत नहीं है। इसमें से कुछ भी उसने जाना नहीं है। इसमें से किसी का भी उसे स्वाद नहीं मिला। ये सब कोरे, उधार, निर्जीव, नपुंसक शब्द हैं। क्योंकि शब्द में प्राण तो पड़ता है अनुभूति से। शास्त्र से शब्द इकट्ठे कर लिए जा सकते हैं। सरल काम है। स्मृति सजाई जा सकती है। जरा भी कठिन नहीं है। छोटे-छोटे बच्चे कर लेते हैं, और बूढ़ों से ज्यादा अच्छा कर लेते हैं। __यह सब बाहर से इकट्ठा किया हुआ बाहर को ही प्रभावित कर सकता है, इसे स्मरण रखें। तो पंडित आपको प्रभावित कर सकता है; शायद ज्ञानी से आप प्रभावित न भी हों। क्योंकि बड़े मजे की बात है कि जमीन पर ज्ञानियों को तो बहुत बार सूली लगी, पंडितों को कभी नहीं लगी। ज्ञानियों पर तो पत्थर बहुत बार फेंके गए, लेकिन पंडितों को किसी ने पत्थर नहीं मारा। ज्ञानियों को तो बड़ी कठिनाइयां भोगनी पड़ी, लेकिन पंडितों को कोई कठिनाई का 25 |
SR No.002374
Book TitleTao Upnishad Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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