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________________ सर्वाधिक मूल्यवान-स्वयं की निजता फिर यह बांटना बहुत तरह का होगा। जो कुछ भी आपके पास होगा, आप बांटेंगे। धन होगा तो धन बांटेंगे, ज्ञान होगा तो ज्ञान बांटेंगे, आनंद होगा तो आनंद बांटेंगे, प्रेम होगा तो प्रेम बांटेंगे। जो भी आपके पास होगा, आपके जीवन की पूरी धारा बांटने में लग जाएगी। देखें! बुद्ध और महावीर जब दुखी हैं तब वे जंगल भाग गए, और जब वे परम आनंद से भर गए और समाधि को उपलब्ध हुए तो समाज में वापस लौट आए। अब तक ऐसा कभी नहीं हुआ कि आनंदित आदमी जंगल में बैठा रहा हो। दुखी आदमी जंगल गए, लेकिन आनंदित आदमी सदा समाज में वापस लौट आया। क्योंकि जंगल में बांटने का कोई उपाय नहीं। जंगल में आनंद पैदा तो हो सकता है, लेकिन बढ़ नहीं सकता, फैल नहीं सकता। उसे उलीचेगा कौन? उसमें साझीदार कौन होगा? तो चाहे जीसस, चाहे मोहम्मद, महावीर, बुद्ध, या कोई भी, ये सारे लोग एक दिन जब दुखी थे तो जंगल की तरफ चले गए, और जब इन्होंने खोज लिया अपने जीवन का स्रोत, और जब इनके स्वर्ग के द्वार खुल गए और जब इनका जीवन उस अपरिसीम संगीत से भर गया जिसे हम ईश्वर कहते हैं, तब ये फिर जंगल में न रुक सके, फिर इनके पैर वहां न थम सके। फिर जंगल की मौन और जंगल की शांति इनको न रोक सकी। फिर ये लौट आए वापस उन लोगों के बीच जिनसे ये कल भाग गए थे। कौन सी घटना घट रही है? इनके वापस लौटने की कला और क्रिया क्या है? इनके वापस लौटने का राज क्या है? बहुत लोगों ने सोचा है। महावीर क्यों वन में चले गए, इस संबंध में बहुत चिंतन हुआ है। लेकिन महावीर वन से वापस क्यों लौट आए, इस संबंध में कोई भी चिंतन नहीं हुआ है। और दूसरी घटना पहली घटना से ज्यादा बड़ी घटना है। जिस समाज को छोड़ कर गए थे उस समाज में वापस आने का प्रयोजन क्या है? प्रयोजन है : जो मिला है उसे बांट देना। फिर ऐसा व्यक्ति न पात्र देखता है, न अपात्र देखता है; बांटता चला जाता है। पात्र और अपात्र भी कंजूस मन देखता है। वह देने के पहले पच्चीस बार सोचता है, दूं या न दूं। और न देने के लिए जब तक उपाय बन सके, वह सब तरह के उपाय खोजता है-अपात्र है, कैसे दं? हम अपने मन को हजार ढंग से समझाते हैं, रेशनलाइज करते हैं, तर्क जुटाते हैं। एक भिखमंगा सड़क पर भीख मांग रहा हो तो आप यह नहीं कहते कि मैं नहीं देना चाहता हूं; आप यह कहते हैं कि देने से भिखमंगापन बढ़ेगा। आप यह देखने को कभी राजी नहीं होते कि यह मेरे देने का डर। वह भी ठीक होगा, शायद आपका तर्क सही ही हो कि आप देंगे तो भिखमंगापन बढ़ेगा। लेकिन उसके कारण आप नहीं दे रहे हैं, यह बात गलत है। आप देना नहीं चाहते हैं। बांटने में पीड़ा होती है, कुछ भी बांटने में पीड़ा होती है। इकट्ठा करने में सुख मिलता है। तो जो भी आपके पास आ जाता है बांटने के लिए कि बांटो कुछ मुझसे, उससे आपको पीड़ा होती है, उससे आप बचना चाहते हैं। पात्र और अपात्र, सही और गलत हमारा कृपण मन ही सोचता है। जब सच में ही देने योग्य हमारे पास कुछ होता है तो फिर न कोई पात्र रह जाता, न कोई अपात्र रह जाता। अभी अगर आप कभी देते भी हैं तो प्रयोजन से देते हैं। उसके पीछे कोई शर्त होती है। चाहे प्रकट, चाहे अप्रकट; चाहे कहते हों, न कहते हों; लेकिन देने के पीछे शर्त होती है और देने के पीछे सौदा होता है। देते हैं, पूरी तरह नहीं देते। और देते हैं तो यह भाव रखते हैं कि जिसको दिया है वह अनुगृहीत अनुभव करे, वह धन्यवाद तो दे, और सदा भार से ग्रस्त रहे, दबे, झुके। और आशा मन में बनी रहती है कि कभी प्रत्युत्तर भी दे। यह देना न हुआ, यह सौदा ही हुआ। जब आप कुछ चाह रहे हैं तो आप दे नहीं रहे हैं। दान के पीछे अगर अप्रकट मांग छिपी है तो दान दिया नहीं जा रहा है, इनवेस्टमेंट है; आप एक नया धंधा खोल रहे हैं। 329
SR No.002374
Book TitleTao Upnishad Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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