SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 338
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ताओ उपनिषद भाग ४ संतोष देगा। और आज जिस प्रेम से सुगंध मिली है वह कल भी सुगंध देगा। जिस प्रेम में आज फूल खिले हैं कल वे और बड़े हो जाएंगे। जिसका आज का क्षण सुखद है, कल इस सुख से ही निकलेगा; इसी की धारा होगी। तो जितना ज्यादा हो जीवन में प्रेम उतनी भविष्य की चिंता कम होती है। भविष्य की चिंता कम हो तो परिग्रह, संग्रह, वस्तुएं इकट्ठे करने का पागलपन छूट जाता है। जितने भी कृपण लोग हैं उनकी कृपणता उनके जीवन में प्रेम की कमी को भरने का उपाय है। प्रेम न हो तो हम सोने से भरते हैं गड्ढे को। वह कभी भर नहीं पाता, क्योंकि सोना मृत है, और कितना ही मूल्यवान हो तो भी जीवित नहीं। और प्रेम एक जीवंत अनुभव है। मनसविद कहते हैं कि जिन बच्चों को बचपन में प्रेम मिलता है वे बच्चे ज्यादा भोजन नहीं करते। उनकी मां परेशान होगी उन्हें भोजन कराने को; मां चिंता करेगी ज्यादा खिलाने की और बच्चे कम भोजन करेंगे। जैसे उनका पेट प्रेम से भरा है। जिन बच्चों को प्रेम नहीं मिलता वे बच्चे ज्यादा भोजन करते हैं, जरूरत से ज्यादा। प्रेम से भीतर गड्डा खाली है; उसे किसी भी भांति भर लेना जरूरी है। और फिर कल का कोई भरोसा नहीं है। छोटे बच्चे को अगर मां का प्रेम मिला है तो वह जानता है, जिस मां ने अभी सम्हाला है, कल भी सम्हालेगी। लेकिन जिस बच्चे के जीवन में प्रेम नहीं उसे डर है, आज रोटी मिलती है, कल कुछ पक्का नहीं है, मिलेगी . नहीं मिलेगी। ज्यादा खा लेगा। प्रेम की कमी भोजन से लोग पूरी कर लेते हैं। मनसविद कहते हैं, प्रेम जीवन में कम हो तो हम बाहर भी इकट्ठा करते हैं; शरीर के भीतर भी मांस, मज्जा और चर्बी इकट्ठी कर लेते हैं। वह भी कृपणता है। वह भी डर है, कल का भरोसा नहीं है। यह जो प्रेम की कमी किसी भी तरह की वस्तुओं से पूरी की जाती है, यह हम ठीक से समझ लें। जीन पेआगे, अन्ना फ्रायड, और दूसरे मनसविद, जो बच्चों पर काम किए हैं, उन्होंने जो कुछ भी खोजा है, लाओत्से हजारों साल वही बात सूत्र में कहा है। लाओत्से की दृष्टि बड़ी गहरी है, और मन की आखिरी पर्त को छूती और पकड़ती है। और उसका विश्लेषण अचूक है। कृपण आदमी की तकलीफ कंजूसी नहीं है। कृपण आदमी की तकलीफ उसके जीवन में प्रेम की कमी है। जिसके जीवन में प्रेम होगा-दूसरी बात खयाल में ले लें-वह कृपण तो हो ही नहीं सकता है, फिजूलखर्च हो सकता है। उलीच सकता है; इकट्ठा नहीं कर सकता। जितना ज्यादा भीतर प्रेम होगा उतना बांटने की आतुरता पैदा होती है। इसे थोड़ा समझें। जब आप दुख में होते हैं तो आप चाहते हैं, सिकुड़ जाएं, एक अंधेरे कोने में छिप जाएं। किसी से मिलें न, जुलें न, कोई देखे न। दुखी आदमी सिकुड़ता है। दुख संकोच लाता है। और अगर दुख बहुत हो जाए तो आप मर जाना चाहते हैं, आत्महत्या कर लेना चाहते हैं। आत्महत्या का अर्थ है, इस भांति सिकुड़ जाना चाहते हैं कि फिर मिलने का दूसरे से कोई उपाय ही न रहे। जब आप सुख में होते हैं तब आप लोगों से मिलना चाहते हैं। जब आप सुख में होते हैं तब मित्रों से, प्रियजनों से बांटना चाहते हैं, किसी को साझीदार बनाना चाहते हैं। शेयर करने का भाव पैदा होता है। सुख बंटना चाहता है। दुख सिकोड़ता है; सुख फैलाता है। इसलिए हमने परम आनंद की जो अवस्था है उसको इस मुल्क में ब्रह्म कहा है। ब्रह्म का अर्थ है, जो फैलता ही चला जाता है, जिसके विस्तार का कोई अंत नहीं। ब्रह्म का अर्थ है, अनंत विस्तार वाला, जो फैलता ही चला जाता है। यह ब्रह्म शब्द बड़ा बहुमूल्य है। इसका अर्थ है, जहां कोई संकोच कभी घटता नहीं, जिसके विस्तार की कोई सीमा नहीं है, और जो विस्तीर्ण ही होता चला जाता है। आनंद का यही लक्षण है। जितना ज्यादा आनंद होगा, उतना आप बांटना चाहेंगे; उतना आप चाहेंगे कि कोई आपको उलीच दे और खाली कर दे। और जितना आप बांटेंगे उतना ही आप पाएंगे आप ज्यादा आनंदित हो गए हैं। आनंद बांटने से बढ़ता है। 328
SR No.002374
Book TitleTao Upnishad Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy