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ताओ उपनिषद भाग ४
आप जहां भी हैं, जो भी लोग सम्मान आपको दे रहे हैं, वे आपको दे रहे हैं या आप जो कर रहे हैं उसको दे रहे हैं? जो आप कर रहे हैं अगर उसको दे रहे हैं तो आप जीवन गंवा रहे हैं। आपके होने में कुछ गुणवत्ता होनी चाहिए। कि बस आपका होना मूल्यवान हो जाए।
लाओत्से कहता है, जब तक खुद के होने में मूल्य न आ जाए तब तक हमने जीवन को वैसे ही खोया।
यह जो होने का मूल्य है यह आपके करने से पैदा नहीं होगा; यह न करने से पैदा होगा। इसे थोड़ा समझ लें, क्योंकि पूरब की सारी खोज न करने की खोज है। पश्चिम की सारी खोज करने की खोज है। इसलिए कैसे करने में आदमी ज्यादा कुशल हो जाए, कैसे यंत्रों से काम हो जाए, सब चीज यंत्र से हो सके, ताकि ज्यादा कुशलता से हो सके। पश्चिम ने विज्ञान और टेक्नालॉजी को जन्म दिया, क्योंकि काम मूल्यवान है। पूरब ने ध्यान को जन्म दिया, क्योंकि ध्यान बिलकुल ही बेकाम अवस्था है, उसमें काम कुछ भी नहीं है। ध्यान का मतलब है कुछ ऐसे क्षण जब आप कुछ भी नहीं कर रहे हैं, जब आप सिर्फ हैं, सिर्फ होने का रस ले रहे हैं, सिर्फ होने में डूब रहे हैं, होने में तैर रहे हैं, होने में खिल रहे हैं; बस सिर्फ हैं। यह जो न करने की दशा है, इन-एक्टिविटी, अक्रिया है, अकर्म है, इसमें ही आप अपनी आत्मा से परिचित होंगे।
लाओत्से कहता है, कर-करके आप संसार भी पा लें तो भी अपने को न पा सकेंगे; न करके ही अपने को पाया जा सकता है। ध्यान है अक्रिया। और हम करने में इतने ज्यादा लीन हो गए हैं कि अगर हम खाली बैठे तो हम बैठ नहीं सकते; कुछ न कुछ हमें चाहिए। लोग मुझसे आकर पूछते हैं। मैं उनको कहता हूं कि ध्यान का मतलब है, तुम कुछ देर शांति से बैठो, कुछ मत करो। वे कहते हैं, कुछ तो बताएं! कुछ न करें, ऐसे कैसे हो? कोई मंत्र ही दे दें, कोई राम नाम दे दें, कुछ बता दें! कोई सहारा, आलंबन, जो हम करें। वे बात ही चूक रहे हैं। और इसलिए बताने वाले लोग मिल जाएंगे जो कहेंगे, यह मंत्र पढ़ो, यह राम का नाम लो, यह बीज-मंत्र है, इसको दोहराना।
पश्चिम में महेश योगी के विचार को कीमत मिली। मिलने का कुल कारण इतना है कि पश्चिम आब्सेस्ड है कर्म से, कुछ करने को चाहिए। ध्यान भी हो तो कुछ करने को चाहिए। तो महेश योगी मंत्र दे देते हैं कि यह बैठ कर मंत्र को जपो। पश्चिम के आदमी को बात समझ में आती है। कुछ करना हो तो समझ में आता है। पश्चिम के आदमी को न करने की बात बिलकुल समझ में नहीं आती।।
पूरब भी पश्चिम हुआ जा रहा है। वहां भी कोई न करने की बात किसी को समझ में नहीं आती। लोग पूछते हैं, बुद्ध क्या कर रहे थे बोधिवृक्ष के नीचे? कुछ भी नहीं कर रहे थे। कर रहे होते तो आप ही जैसे रह जाते। बुद्ध खाली बैठे थे। मगर हमें लगता है कि अगर खाली बैठे थे तो बेकार समय खो रहे थे। फायदा क्या, लाभ क्या है?
खाली बैठे थे, इसलिए बुद्ध हो गए। जापान में खाली बैठना एक ध्यान का पूरा संप्रदाय है। सिर्फ बैठने को वे कहते हैं झाझेन-जस्ट सिटिंग। और वे कहते हैं, अगर पूरे जीवन में इतना भी आ जाए तो सब कुछ आ गया। आसान काम नहीं है। कम से कम बीस साल लग जाते हैं। छह-छह घंटा झेन साधक बैठता है। और गुरु का कुल इतना ही आदेश है कि तुम कुछ करो मत, बस बैठे रहो।
पुरानी आदतें जोर पकड़ती हैं; कुछ न कुछ करने का मन होता है। विचार चलते हैं; भाव उठते हैं; कुछ न हो तो कहीं पैर में झुनझुनी आती है, कभी चींटी चलती मालूम पड़ती है। और वैसे आपको कभी नहीं आती और कभी चींटी चढ़ती नहीं मालूम पड़ती। कहीं खुजलाहट उठती है, कहीं गर्दन में तनाव मालूम पड़ता है। यह सब इसलिए पड़ रहा है कि मन कह रहा है कुछ करो, खुजलाओ, कोई रास्ता खोज रहा है। मन आपके लिए कोई निमित्त बना रहा है। वह कह रहा है कि तुम थक गए हो, परेशान हुए जा रहे हो, ऐसे बैठे नहीं चलेगा; तुम कुछ करो। खांसी आने लगेगी, कुछ होने लगेगा। और आप सोचते हैं कि इसमें अब मैं क्या कर सकता हूं! यह तो स्वाभाविक कुछ हो रहा है।
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