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कठिबतम पर कोमलतम सदा जीतता है
जहां से कि वापस लौटना मुश्किल हो जाए। और प्रेम का तो मतलब यह है कि वहां से लौटना हो ही न सके; खो ही जाएंगे। मेरे अनुभव में सैकड़ों लोग हैं जिनके जीवन की एक ही पीड़ा है कि वे किसी को प्रेम नहीं कर पाए। और कोई दूसरा जिम्मेवार नहीं है, जिम्मेवार वे खुद हैं। कुछ कारण हैं जिनकी वजह से वे प्रेम नहीं कर पाए। और बड़े से बड़ा कारण तो यह है कि प्रेम में आपको झुकना पड़ेगा। और झुकना लज्जा की बात है। झुकाने में रस है। हम झुकाना चाहते हैं किसी को, झुकना नहीं चाहते। और फिर अगर हम इस भांति किसी को झुका भी लेते हैं तो शत्रुता ही पैदा होती है, प्रेम पैदा नहीं होता। क्योंकि जिसको हम झुका लेते हैं वह भी झुकाना ही चाहता था। झुकने को कोई भी राजी नहीं है। यह जो अकड़ है हमारी वह हमारे जीवन का कैंसर है, रोग है भारी। उसकी वजह से कोई प्रेम में नहीं उतर पाता।
और जब प्रेम में ही नहीं उतर पाते तो प्रार्थना बिलकुल असंभव है। और मैं यह भी देखता हूं कि जो लोग प्रेम में नहीं उतर पाते अक्सर मंदिरों में पाए जाते हैं। क्योंकि वे यहां नहीं झुक पाए, किसी आदमी के सामने नहीं झुक पाए, तो वे सोचते हैं कि चलो, परमात्मा के सामने तो झुका जा सकता है। लेकिन आपको झुकने का अनुभव ही नहीं है। पत्थर की मूर्ति के सामने ज्यादा कठिनाई नहीं होती झुकने में, क्योंकि वहां कोई दूसरा है नहीं। और मंदिर में आप अकेले हैं। लेकिन अगर वह मूर्ति भी जीवित हो तो झुकना मुश्किल हो जाए। अगर आप झुक रहे हों, और बीच में आप देख लें कि मूर्ति की आंखें गौर से देख रही हैं, तो आप सीधे खड़े हो जाएंगे वापस; आप फिर पूरे भी नहीं झुक पाएंगे। वहां कोई नहीं चाहिए। इसलिए आदमी ने पत्थर के भगवान खड़े किए हैं। वह आदमी की होशियारी का हिस्सा है; उसकी चालाकी है।
झुकना एक मधुर अनुभव है। वह हम कहीं भी नहीं कर पाए तो हम जाकर एकांत में एक खेल कर रहे हैं। एक पत्थर की मूर्ति के सामने झुक रहे हैं। उस झूठे झुकने में भी थोड़ा सा रस तो आता है, झूठे झुकने में भी थोड़ा सा रस तो आता है। अगर आप जाकर मंदिर में चारों हाथ-पैर छोड़ कर साष्टांग दंडवत में पड़ गए हैं मंदिर के फर्श पर, अच्छा तो लगेगा; इस झूठे झुकने में भी अच्छा लगेगा। क्योंकि झुकना इतनी बड़ी घटना है। और अगर ऐसे ही आप किसी जीवित मनुष्य के सामने झुक जाएं तो प्रेम है। और प्रेम से गुजर कर जो पहुंचे, वही प्रार्थना तक पहुंच सकता है। अन्यथा उसकी प्रार्थना झूठी होगी। मेरी प्रार्थना की शर्त ही यही है कि प्रार्थना तभी सच्ची हो सकती है जब उसके पहले प्रेम का कोई वास्तविक अनुभव हो। प्रार्थना सब्स्टीटयूट नहीं है, वह आपके प्रेम की परिपूरक नहीं है कि आप आदमी से प्रेम करने से रुक गए हों, और परमात्मा से प्रेम करना...।
अहंकारी व्यक्ति आदमी से प्रेम करना नहीं चाहता, वह परमात्मा से प्रेम करना चाहता है। परमात्मा के साथ प्रेम करने में कई सुविधाएं हैं। एक तो वन वे ट्रैफिक है; दूसरी तरफ से कुछ आता-जाता नहीं है। आप ही बोलते हैं, आप ही जवाब देते हैं। आपकी अपनी मौज है। और दूसरा व्यक्ति किसी तरह की अड़चनें खड़ी नहीं करता। दूसरा वहां कोई है नहीं। फिर परमात्मा आप चुनते हैं; परमात्मा आपका ही होता है। हिंदू का अपना है, मुसलमान का अपना है, जैन का अपना है। वह आपका ही चुनाव है। हिंदू को कहें कि मस्जिद में झुक जाए, झुकना मुश्किल हो जाता है। हिंदू अपने परमात्मा के सामने झुक सकता है, जिसको उसने ही निर्मित किया है, जो उसके ही अहंकार का फैलाव है, मस्जिद में नहीं झुक सकता। मुसलमान को मंदिर में झुकने की कोई संभावना नहीं है।
तो जिस परमात्मा को आपने निर्मित किया है और जिसको आपने अपनी धारणाओं से बनाया और जो आपके ही अहंकार का विस्तार है, उसके सामने झुकने का क्या मतलब होता है? उसके सामने झुकने का मतलब है, जैसे आप दर्पण में अपनी तस्वीर देखें और झुक जाएं। इतना ही मतलब है। वह अहंकार की ही घूम कर पूजा है; वह अपनी ही पूजा है। मंदिरों में लोग अपने ही सामने झुके हुए हैं। जीवित व्यक्ति के सामने झुकना पीडादायी है। अहंकार टूटता है; आप दीन हो जाते हैं। तो लोग प्रेम से बचते हैं और प्रार्थना की तरफ जाते हैं।