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________________ ताओ उपनिषद भाग ४ बहने देना, बिना किसी शर्त, प्रेम के प्रत्युत्तर के बिना किसी मांग के, सिर्फ प्रेम को बहने देना, तो शायद आपको पहली दफे अनुभव होगा कि प्रेम क्या है, और क्यों प्रेम इतना कोमल है। और आप प्रेम बन जाएं तो ही प्रार्थना बन सकते हैं। बिना प्रेम बने जगत में कोई भी प्रार्थना नहीं बन सकता। और अभी आप प्रेम भी नहीं बन सके हैं। और हम जिसे प्रेम कहते हैं वह अक्सर धोखा है। कुछ और है वह। कामवासना हो सकती है; जीवन का अकेलापन हो सकता है; संगी-साथी की इच्छा हो सकती है; लोभ हो सकता है; भय हो सकता है। हमारे प्रेम के पीछे न मालम कितनी चीजें छिपी हो सकती हैं। थोड़ा आप अपने प्रेम का निरीक्षण कर लें कि आपके प्रेम में क्या छिपा है! अकेले होने का डर है। तो किसी न किसी को आप प्रेम करते हैं, ताकि कोई संगी-साथी हो। शरीर की वासना है। क्योंकि शरीर निरंतर काम-ऊर्जा को पैदा कर रहा है; उसे किसी तरह निष्कासन चाहिए। तो आप निष्कासन के लिए एक स्त्री को या एक पुरुष को खोज लेते हैं। वह आपकी शारीरिक जरूरत है। और जिससे भी हमारी जरूरत पूरी होती है उसकी हम थोड़ी फिक्र लेते हैं। इसको हम प्रेम कहते हैं। स्वभावतः, जिससे हमारी जरूरत पूरी होती है उस पर हम निर्भर हो जाते हैं। उसके बिना जरूरत पूरी नहीं हो सकेगी। इस निर्भरता को हम प्रेम कहते हैं। बीमारी है, बुढ़ापा है, कष्ट के क्षण हैं, कोई तीमार, . कोई केयर, कोई हिफाजत करने के लिए चाहिए। __लोग अविवाहित रह जाते हैं, लेकिन चालीस-पैंतालीस साल के आस-पास उनको चिंता जोर से पकड़ने लगती है। क्योंकि जैसे-जैसे बुढ़ापा करीब आता है उन्हें लगता है कि जवानी तो बिना विवाह के गुजारी भी जा सकती है, लेकिन वृद्धावस्था में बहुत अकेलापन हो जाएगा। तब कोई संगी-साथी चाहिए, नहीं तो बिलकुल अकेले पड़ जाएंगे, बिलकुल कट जाएंगे। और दुनिया तो अपनी राह पर चली जाती है। दुनिया को तो बच्चे सम्हाल लेते हैं, नए जवान सम्हाल लेंगे; राग-रंग उनका होगा। बूढ़ा आदमी बिलकुल कट जाएगा और अकेला हो जाएगा। अकेलेपन का डर लोगों को विवाह में ले जाता है। प्रेम के कारण लोग विवाह करते हों, ऐसा नहीं है; अकेले नहीं रह सकते। और फिर इस सबको प्रेम का नाम दे देते हैं। बने रहते हैं पत्थर, जमे, कठोर। उसमें ही उस कठोरता में ही-थोड़ा सा आवरण प्रेम का, थोड़ा सा अभिनय, थोड़ी सी कुशलता प्रेम की सीख लेते हैं। लोगों को देखें! पिता कहता है अपने बेटे से कि मैं तुम्हें प्रेम करता हूं। लेकिन दिखता चौबीस घंटे कठोर है। पति कहता है पत्नी से कि मेरा प्रेम है, लेकिन उस प्रेम का कोई पता नहीं चलता। और अगर हमें प्रेम का ही अनुभव न हो तो प्रार्थना का अनुभव कभी भी नहीं हो सकता। इसके पहले कि किसी मंदिर में आपको परमात्मा मिले, आपका घर कम से कम प्रेम का मंदिर बन जाना जरूरी है। और घर जब तक प्रेम का मंदिर न हो तब तक कोई मंदिर प्रार्थना का मंदिर नहीं हो सकता। 'संसार का कोमलतम तत्व कठिनतम के भीतर से गुजर जाता है।' और अगर आपको प्रेम आ जाए तो आप डरना मत कि आप कोमल हो जाएंगे, पराजित हो जाएंगे, हार जाएंगे। शुरू में तो ऐसा ही दिखेगा। शायद इसीलिए हम इतने कठोर हो गए हैं और प्रेम से डरते हैं। यह जान कर हैरानी होगी कि अधिक लोग प्रेम से भयभीत हैं। क्योंकि जैसे ही वे प्रेम की दुनिया में उतरते हैं वैसे ही पिघलना पड़ता है। और उनकी कठोरता, उनकी अकड़, उनका अहंकार, उनकी शक्ति की धारणा सब टूटती है; इमेज, पूरी की पूरी प्रतिमा गिरती है। लोग प्रेम से भयभीत हैं। और इसीलिए सिर्फ ऊपर-ऊपर खेलते हैं। गहरे पानी में जाने में डर है। आप अपने से पूछना कि आप जीवन में प्रेम से डरे तो नहीं रहे? और जब भी आपने किसी को प्रेम किया है तो आपने सुरक्षा कर ली है या नहीं? आप उतने ही दूर तक जाते हैं जहां से वापस लौटना आसान हो। उतने गहरे जाने से आप भयभीत हैं 316
SR No.002374
Book TitleTao Upnishad Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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