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ताओ उपनिषद भाग ४
जोर का तूफान चलता है तो बड़े वृक्ष टूट कर गिर जाते हैं; छोटे घास के पौधे झुकते हैं, तूफान भी उन्हें तोड़ नहीं पाता। तूफान चला जाता है, घास के पौधे फिर खड़े हो जाते हैं। तूफान उन्हें और ताजा कर जाता है, और जीवन दे जाता है। उनकी धूल, उनका अतीत झाड़ देता है। वे और प्राणवंत हो जाते हैं। तूफान उनकी मृत्यु नहीं बनता, उन्हें जीवनदायी होता है। लेकिन बड़े वृक्ष, जो अकड़ कर खड़े रहते हैं, जो शक्तिशाली हैं, जो तूफान से लड़ने की हिम्मत जुटाते हैं, उनकी जड़ें उखड़ जाती हैं। तूफान उन्हें एक बार गिरा देता है तो फिर उनके उठने का कोई उपाय नहीं। शक्तिशाली गिर जाए तो उठ नहीं सकता; उसकी शक्ति ही इतनी बोझिल हो जाती है। निर्बल-निर्बल कभी गिरता नहीं, झुकता है। झुकना उसकी कला है। और झुकने में ही उसकी शक्ति का राज है।
जीसस के बड़े प्रसिद्ध वचन हैं और ईसाइयत के पास उन्हें खोलने का पूरा-पूरा राज नहीं। लाओत्से में कुंजी है जीसस की। जीसस के वचन हैं : धन्य हैं वे जो कमजोर हैं, क्योंकि वे ही पृथ्वी के राज्य के मालिक होंगे। धन्य हैं वे जो विनम्र हैं, क्योंकि अंतिम विजय उनकी ही होगी।
लेकिन हमारे देखने में हमारी दृष्टि इतनी दूरगामी नहीं-जो प्रथम है वही हमें दिखाई पड़ता है। पानी गिरता है पर्वत से; पत्थर अडिग खड़ा रहता है, पानी छितर-बितर हो जाता है; पत्थर की विजय दिखाई पड़ती है। लेकिन लंबे अरसे में, समय की लंबी धारा में और जीवन महान है, जीवन विराट है, अंतहीन! इसमें प्रथम का कोई मूल्य नहीं, अंतिम का ही मूल्य है। यह धारा तो शाश्वत है। कल भी थे आप, परसों भी थे आप। ऐसा कभी कोई क्षण न था जब आप न थे। और ऐसा भी कोई क्षण कभी नहीं होगा जब आप न होंगे। इस अनंत धारा में प्रथम को ही जो जीवन का आधार बना लेता है वह भूल में पड़ जाता है। शक्तिशाली प्रथम जीतता हुआ मालूम पड़ता है, लेकिन इस समय की अनंत धारा में उसकी कहीं कोई जीत नहीं है।
दूरगामी दृष्टि हो तो लाओत्से समझ में आएगा। पर हमारी आंखें बहुत कमजोर हैं और निकट ही देख पाती हैं, दूर नहीं देख पातीं। जीवन में, प्रत्येक को अपने जीवन में खोजना चाहिए कि जो चीज भी प्रथम क्षण में जीतती हुई मालूम पड़ती हो, उससे सावधान रहना। उसका अर्थ है कि लंबे अरसे में वह हार सिद्ध होगी। और जो चीज प्राथमिक क्षण में जीतती हुई न मालूम पड़ती हो, उसके संबंध में बार-बार सोचना। लंबे अरसे में उसकी विजय सुनिश्चित है। चूंकि हम देख नहीं पाते, दूसरा अंतिम छोर हमें दिखाई नहीं पड़ता, इसलिए हम प्रथम की भूल में पड़ जाते हैं।
इसे हम ऐसा भी समझें। निरंतर मैं कहता रहा हूं कि जहां सुख का पहला अनुभव होता है वहां पीछे अंत में दुख उपलब्ध होता है। जहां पहले ही लगता है कि सुख, वहां थोड़ा सावधान हो जाना जरूरी है; पीछे दुख छिपा है।
और जहां पहले दुख मालूम पड़ता है वहां से शीघ्र भाग जाना उचित नहीं, क्योंकि वहां सुख की संभावना हो सकती है। तपश्चर्या का इतना ही अर्थ है, दुख को भी इसलिए स्वीकार कर लेना कि उसके पीछे सुख की संभावना हो सकती है। त्याग का इतना ही अर्थ है कि उस सुख को अस्वीकार कर देना जिसके पीछे अनंत दुख छिपा हो।
लेकिन जिनके पास आंखें कमजोर हैं और जिन्हें सिर्फ एक कदम ही दिखाई पड़ता है वे सदा ही भ्रांति में जीएंगे। वे उस सुख को पकड़ लेंगे जो केवल दुख का बुलावा है। वे उस दुख को छोड़ देंगे, भाग जाएंगे, जहां सुख की संपदा छिपी थी। वे उस विजय के लिए राजी हो जाएंगे जो क्षणभंगुर है, और फिर सदा के लिए पराजय का अनुभव करेंगे। और वे उस पराजय से भाग खड़े होंगे जिसके पीछे विजय की यात्रा का पथ शुरू होता था।
जीवन इतना सरल नहीं है, जीवन जटिल है। और जैसा कि लाओत्से की धारणा के आधार-स्तंभों में एक है कि हर चीज अपने विपरीत से जुड़ी है। तो जहां सुख है प्रथम में, वहां अंत में दुख होगा। और प्रथम तो क्षण भर में मिट जाएगा और अंत बहुत लंबा है। जहां विजय है प्रारंभ में, वहां अंत में पराजय होगी। हिटलर, सिकंदर, तैमूर,
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