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________________ ताओ उपनिषद भाग ४ 296 पर वह सरिता अदृश्य है। और जीवन के भावों में जब तक आप ठीक-ठीक ईमानदारी से प्रयोग न करें, उस अदृश्य का आपको कोई पता नहीं चल सकता है। लेकिन हम भयभीत और डरे हुए लोग हैं। और हमारे भय ने हमारे सारे जीवन को विषाक्त कर दिया है। फिर हम जो भी करते हैं, वह अधूरा-अधूरा है, अपंग; उसके कोई पैर नहीं, वह कहीं ले जाता नहीं। हम जीते हैं मरे हुए, क्योंकि जीवन के किसी भी क्षण को हम अपनी पूर्णता नहीं देते। किसी भी दिन अगर वैज्ञानिक ढंग से आदमी का चरित्र विकसित किया जाएगा तो उसे सिखाया जाएगा प्रामाणिक होना। और प्रामाणिक होने का मतलब यह है कि जो भी तुम्हारी भाव- दशा हो उसमें तुम पूरे ही जूझ जाना; जो भी परिणाम हो, परिणाम भोगने के लिए तैयार रहना । परिणाम के डर से हम पूरे जीवन को ही गंवा देते हैं। जो भी परिणाम हो प्रामाणिकता का, वह बुरा नहीं होगा। उससे लाभ होंगे; उससे आपकी आत्मा का जन्म होगा। और जो भी लाभ दिखाई पड़ते हों अप्रामाणिक और झूठे होने के, वे कितने ही लाभ दिखाई पड़ते हों, अंततः आपकी आत्मा का हनन है । और आखिर में आप पाएंगे कि आपने आत्मघात कर लिया; अपनी होशियारी में ही आप डूब मरे । लाओत्से कहता है, यिन और यान, ये दो विरोधी तत्व हैं; इनको स्त्री-पुरुष कहें, या जो भी नाम देना हो, प्रकृति-पुरुष कहें; इन दोनों के बीच एक लयबद्धता हैं। ये दो तो दिखाई पड़ते हैं। ये दो किनारे साफ हैं, ये दृश्य हैं; इनके बीच बहने वाली धारा अदृश्य है और अरूप है। उस अरूप को देखने के लिए इन दोनों किनारों को स्पष्ट रूप से, दोनों किनारों को स्पष्ट रूप से पकड़ लेना होगा। इसमें जरा भी बेईमानी, और आदमी भटक जाता है। जो भी हमें मिला है— बुरा है या भला है, शुभ है या अशुभ है, विधायक है या नकारात्मक है— हमें मिला है स्वभाव से । जरूर उसमें छिपा हुआ कुछ रहस्य है। जल्दी उसे निंदा न करें, और जल्दी उसके त्याग की चिंता न करें । त्याग इतना आसान नहीं । त्याग तो केवल वे ही कर पाते हैं जो इन दोनों के बीच संतुलन को खोज लेते हैं। उनके किनारे अपने आप छूट जाते हैं। जिसको धारा मिल गई, वह फिर किनारों की चिंता नहीं करता। वे छूट ही जाते हैं। जिसको धारा मिल गई, वह न फिर पुरुष रह जाता और न स्त्री । जिसको बीच का संतुलन मिल गया, संगीत मिल गया, वह न विधायक रह जाता, न नकारात्मक, न यिन और न यान । वह दोनों एक साथ हो जाता है, या दोनों के एक साथ पार हो जाता है। इस पार, अतिक्रमण करने वाली कला को ही लाओत्से ने योग कहा है। 'अनाथ, अयोग्य और अकेला होने से मनुष्य सर्वाधिक घृणा करता है।' थोड़ा समझना। अनाथ, अयोग्य, अकेला होने से मनुष्य सर्वाधिक घृणा करता है। 'तो भी राजा और भूमिपति अपने को इन्हीं नामों से पुकारते हैं। क्योंकि चीजें कभी घटाई जाने से लाभ को प्राप्त होती हैं और बढ़ाई जाने से हानि को ।' अनाथ, अयोग्य और अकेला - ये हमारे भय हैं। अकेले होने से हम बहुत भयभीत हैं। शायद इससे बड़ा कोई भी भय नहीं है। कोई भी अकेला नहीं होना चाहता। कोई न कोई, किसी न किसी प्रकार का साथ चाहिए। अगर हम अकेले हो भी जाएं किसी कारणवश, परिस्थितिवश तो भी हम चिंतन करते हैं दूसरों का, ताकि कम से कम कल्पना में कोई दूसरा रहे और हम बिलकुल अकेले न हो जाएं। कवि कहते हैं कि प्रियजनों से दूर होने पर प्रेम बढ़ता है। वह इसीलिए बढ़ता है कि प्रियजन दूर होते हैं तो हम उनका चिंतन करते हैं; पास होते हैं तो चिंतन की कोई जरूरत नहीं रह जाती। सब्स्टीट्यूट है कल्पना; जो हमारे पास नहीं है उसकी हम चिंतना करते हैं। चिंतना करके हम एक काल्पनिक साथ पैदा कर लेते हैं । उपवास के दिन आदमी भोजन का विचार करता है। वह न मालूम किस-किस प्रकार के भोजन की सोचता है। अनजाने ही, अचेतन में ही यह प्रवाह उठने लगता है। और जब तक आदमी उपवास करके भोजन की सोचता रहे तब तक उसका उपवास बिलकुल
SR No.002374
Book TitleTao Upnishad Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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