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________________ में अंधेपन का इलाज करता हूं जोड़ते ही चले जाएं तो एक ही बचेगा-ब्रह्म। टोटैलिटी हो जाएगी; एक समग्रता हो जाएगी। उसमें सम्राट भी खो जाएगा, नागसेन भी खो जाएगा। बंद को अगर हम सागर में डाल दें तो भी खो जाती है और बंद को अगर हम भाप बना दें तो भी खो जाती है। भाप बनने में बूंद मिटती है, शून्य हो जाता है; पीछे कुछ बचता नहीं। सागर में बूंद को डाल दें, बूंद रहती है, लेकिन सागर बचता है, बूंद खो जाती है। तो या तो शून्य की तरफ चलें, अपने को काटते जाएं, काटते जाएं और भीतर अनुभव करें कि मैं नहीं हूं। और या फिर पूर्ण की तरफ चलें और जोड़ते जाएं और जोड़ते जाएं, और ऐसा अनुभव करते जाएं कि सब कुछ मैं ही हूं। दोनों ही स्थिति में नागसेन खो जाएगा, आप खो जाएंगे। अहंकार बीच में बच सकता है-कुछ जुड़ा, कुछ टूटा। पूरा तोड़ दें तो खो जाता है, पूरा जोड़ दें तो खो जाता है। पूर्ण के साथ अहंकार का कोई संबंध नहीं बन पाता; अपूर्ण के साथ ही अहंकार का संबंध बनता है। इसलिए वेदांत और बुद्ध का विचार बड़े विपरीत मालूम होते हैं; ब्रह्म-अनुभूति और निर्वाण, शून्यता बड़े विपरीत मालूम होते हैं। विपरीत मालूम होते हैं शब्दों की वजह से, प्रक्रिया, विधि की वजह से। लेकिन अंतिम परिणाम बिलकुल एक है। इसलिए जिनको जैसा रुचिकर लगता हो! कुछ लोग हैं जो विश्लेषण में ज्यादा रस ले पाएंगे, नेति-नेति, इनकार करने में; ठीक है। इसलिए जब कोई नास्तिक मेरे पास आता है तो उससे मैं नहीं कहता कि तू ईश्वर को मान। उससे मैं कहता हूं कि फिक्र छोड़, ईश्वर है ही नहीं; अब तू इसकी ही फिक्र कर कि तू भी नहीं है। ईश्वर को छोड़ने की तूने हिम्मत की, काफी किया; अब इतनी हिम्मत और कर कि तू भी नहीं है। आत्मा भी नहीं है, अहंकार भी नहीं है। नास्तिक को मैं कहता हूं, न करने का तेरा रस है तो फिर पूरा ही न कर दे; कह दे कि कुछ भी नहीं है। तो भी वहीं पहुंच जाएगा। आस्तिक होने की कोई जरूरत नहीं है। अगर आपका रुझान आस्तिक का है तो बात अलग है। तो नास्तिक होने की कोई जरूरत नहीं है। नास्तिक भी पहुंच सकता है; यह इस भारत की ही खोज है। यह जान कर आप हैरान होंगे, दुनिया में कोई नास्तिक धर्म नहीं है, सिर्फ भारत में दो धर्म नास्तिक हैं, जैन और बौद्ध। दुनिया में कोई धर्म नास्तिक नहीं है। दुनिया में, भारत के बाहर, समझ में भी नहीं आता उनको कि नास्तिक का कैसे धर्म हो सकता है। नास्तिक और धर्म उलटे मालूम पड़ते हैं। लेकिन हमने नास्तिक का धर्म भी खोज लिया। क्योंकि धर्म परम सत्य हैउसे न करके भी पाया जा सकता है, उसे हां करके भी पाया जा सकता है। अगर सत्य को हां करके ही पाया जा सकता है तो सत्य अधूरा हो गया, तो सत्य कमजोर हो गया; न को झेलने की उसमें हिम्मत न रही। तो सत्य अधूरा हो गया। सिर्फ हां वालों को मिलेगा, न वालों को नहीं मिलेगा, तो सत्य भी फिर इतना परिपूर्ण नहीं है कि सभी उसमें समा जाएं। तो उस मंदिर में भी कुछ के लिए जगह.है और कुछ के लिए जगह नहीं है। भारत अदभुत है। आस्तिक धर्म तो बिलकुल सहज बात है। ईसाइयत है, इसलाम है; सब आस्तिक धर्म हैं। उनकी कल्पना के ही बाहर है कि कोई धर्म हो सकता है, जो कहता है ईश्वर नहीं, और हो सकता है। और कोई धर्म हो सकता है, जो यहां तक कहता है कि न कोई परमात्मा है, न कोई आत्मा है, और फिर भी धर्म हो सकता है। लेकिन हमारा धर्म का अर्थ ही और है। धर्म का हमारा अर्थ है: वह जो परम है उसको पा लेना। उसको पाने के दो ढंग हैं। या तो कोई इतनी हां करे कि उसकी हां विराट हो जाए और उसमें कहीं भी न को गुंजाइश न रहे। तो पूर्ण हो गया। या कोई इतना न करे कि हां की जरा भी गुंजाइश न रहे। तो न पूर्ण हो गया। या तो यस पूर्ण हो जाए या नो पूर्ण हो जाए। जहां भी दोनों में से कोई एक पूर्ण हो जाता है, परम सत्य की उपलब्धि हो जाती है। इसलिए बुद्ध नास्तिक हैं। ईश्वर नहीं है, आत्मा नहीं है। बड़ा मुश्किल है पश्चिम को समझना कि ऐसा आदमी! एच.जी.वेल्स ने लिखा है कि बुद्ध इस पृथ्वी पर सबसे ज्यादा ईश्वरविहीन और सबसे ज्यादा ईश्वर जैसे 279
SR No.002374
Book TitleTao Upnishad Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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