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________________ मैं अंधेपन का इलाज करता हू 271 हूं कि जगह खाली नहीं है। उसने कहा, वह तख्ती छोड़ो एक तरफ। आज से चार महीने पहले कम से कम सौ ग्राहकों को रोज वापस लौटाता था, अब मुश्किल से पंद्रह-बीस को लौटा रहा हूं। धंधा रोज गिर रहा है। आदमी की व्याख्याएं हैं। धंधा उतना ही है, लेकिन ग्राहक कम लौट रहे हैं, इससे भी पीड़ा है। धंधे में रत्ती भर का फर्क नहीं पड़ा है, लेकिन वह आदमी दुखी है। और उसके दुख में कोई शक करने की जरूरत नहीं, उसका दुख सच्चा है; वह भोग रहा है दुख । दुख हमारी व्याख्या है। कष्ट बाहर से मिल सकता है। इसलिए कष्ट से तो बुद्ध भी पार नहीं हो सकते। जब तक शरीर है, तब तक कष्ट दिया जा सकता है। लेकिन दुख देने का कोई उपाय नहीं। क्योंकि कष्ट बाहर ही रह जाएगा। उसकी दुख की भांति व्याख्या नहीं की जाएगी। तो दो बातें स्मरण रखें। हम दुख जानते हैं, ऐसा मत कहें; हम दुख भोगते हैं। बुद्ध आनंद भोगते हैं। दुख को जो पहचान लेता है वह आनंद के भोग के लिए तैयार हो जाता है। दुख के पूरे यंत्र को जिसने समझ लिया वह दुख के बाहर होना शुरू हो जाता है। और पूछा है कि हम आनंद की दिशा में क्यों नहीं जाते ? अपनी तरफ से तो हम जाते ही हैं, पहुंचते नहीं। अपनी तरफ से तो प्रत्येक व्यक्ति आनंद की ही तलाश करता है। ऐसा आदमी तो खोजना मुश्किल है जो आनंद की तलाश न करता हो। यह दूसरी बात है कि उसकी तलाश भ्रांत हो; वह जहां खोजता हो वहां आनंद न मिलता हो; वह जिन ढंगों से खोजता हो वे ढंग दुख में ले जाते हों। आनंद को सभी खोजते हैं। उस संबंध में कोई भेद नहीं है बुद्ध में और अबुद्ध में, ज्ञानी में, अज्ञानी में । भेद विधि का है। बुद्ध इस ढंग से खोजते हैं कि पा लेते हैं, और हम इस ढंग से खोजते हैं कि नहीं पाते। ढंग का फर्क है, खोज का कोई फर्क नहीं है। लक्ष्य का कोई फर्क नहीं है। चाहते तो हम भी आनंद ही हैं। लेकिन चाह कर भी दुख पैदा होता है तो जरूर कहीं कोई भूल चाह में हो रही है। इसे दो-तीन हिस्सों में समझ लेना जरूरी है। पहली बात, जो बहुत महत्वपूर्ण है: हमारा सुख, या जिसे हम आनंद कहते हैं, वह सदा भविष्य में होता है; आने वाले कल में होता है। ध्यान रहे, भूल शुरू हो गई। अस्तित्व अभी और यहीं है, और आपने कल की वासना शुरू कर दी जो कि नहीं है। आप अस्तित्व के बाहर भटक गए। जो भी मिल सकता है वह अभी और यहीं मिल सकता है। कल तो कुछ भी नहीं मिल सकता; क्योंकि कल कभी आता ही नहीं। कल का कोई अस्तित्व ही नहीं है। वह नासमझ आदमी की दौड़ है। नासमझ अपनी वासना के कारण कल को सोचता रहता है। बुद्ध से उनके एक भिक्षु सारिपुत्त ने पूछा है कि मैं आनंद को कैसे खोजूं? तो बुद्ध ने कहा, तू खोज छोड़, अभी और यहीं सिर्फ मौजूद रह । खोज की कोई जरूरत नहीं। आनंद यहीं है। तू भागा हुआ है, इसलिए जो यहीं है उससे तेरा मिलन नहीं हो पाता। आनंद कोई वस्तु नहीं है जो भविष्य में मिल जाएगी; वह हमारे जन्म के साथ हमारे हृदय की धड़कन में बसी है। आनंद हमारा स्वभाव है । उसे खोजने की कोई जरूरत ही नहीं है। खोजने की वजह से ही हम उससे चूकते हैं। खोजें मत; उसे अभी इसी क्षण में पकड़ें। उसे कल पर मत टालें। दुखी आदमी वही आदमी है जो सुख को कल खोजता है, और आनंदित आदमी वही आदमी है जो उसे कल पर नहीं टालता, अभी इसी क्षण में डूबता है। इस डूबने का नाम ध्यान है, समाधि है। तो जब आप इसी क्षण में डूबने की कला सीख जाते हैं तो आपको आनंद का स्रोत उपलब्ध हो जाता है, एक । दूसरी बात ध्यान रखनी जरूरी है कि सुख खोजने वाले लोग सदा दूसरे से सुख पाने की चेष्टा में लगे होते हैं । जैसे कोई और देगा - पत्नी देगी, पति देगा, धन देगा, समाज देगा, बेटा देगा - कोई देगा, कोई और देगा। वहां भूल हो रही है। आनंद आपके भीतर है; दुनिया में कोई भी उसे आपको दे नहीं सकता। उसे देने का कोई उपाय नहीं है। तो
SR No.002374
Book TitleTao Upnishad Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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