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मध्ये संत को पचानना कठिन
कोई बीज बोए हों तो फसल इस क्षण भी काटी जा सकती है। इसलिए भयभीत होने की कोई जरूरत नहीं। और न भी पीछे कुछ किया हो तो भी बैठ जाने से कुछ हल नहीं है। कुछ करें, ताकि आगे कुछ हो सके।
लाओत्से कहता है, 'महा प्रतिभा प्रौढ़ होने में समय लेती है। महा संगीत धीमा सुनाई पड़ता है।'
क्षुद्र संगीत ही शोरगुल वाला होता है। महा संगीत धीमा होने लगता है। परम संगीत की अवस्था तो वही है, जब शून्य रह जाता है; स्वर बिलकुल शून्य हो जाते हैं। जो शून्य को सुन सकता है, वह महा संगीत को सुनने में समर्थ हो गया। इसलिए हम तो ओंकार को ही महा संगीत कहते हैं। क्योंकि जब व्यक्ति पूर्ण शून्य हो जाता है तब
ओंकार की ध्वनि सुनाई पड़ती है। और वह ध्वनि ध्वनिरहित है, साउंडलेस साउंड। उसे रिकार्ड नहीं किया जा सकता। चाहे हृदय में ही टेप रिकार्डर हम लगा लें तो भी उसे रिकार्ड नहीं किया जा सकता। वह कोई ध्वनि नहीं है स्थूल अर्थों में। वह महा शून्य की गूंज है। जब सारी ध्वनियां खो जाती हैं तो उनके खो जाने से जो गूंज रह जाती है, उस गूंज का नाम ओंकार है।
'महा संगीत धीमा सुनाई पड़ता है।'
इसलिए धीमे से धीमे सुनने की क्षमता विकसित करनी चाहिए। धीरे-धीरे-धीरे-धीरे जितना धीमा सुन सकें, जितना सूक्ष्म सुन सकें, उसकी फिक्र करनी चाहिए। शोरगुल चल रहा है बाजार का; आंख बंद करके दीवार पर लगी घड़ी को सुनने की कोशिश करनी चाहिए। आप हैरान होंगे, जैसे ही आपका ध्यान दीवार की घड़ी पर जाएगा, थोड़ी देर में उसकी टिक-टिक सुनाई पड़ने लगेगी। बाजार का शोरगुल खो गया; टिक-टिक सुनाई पड़ने लगी। फिर धीरे-धीरे और नीचे हटना चाहिए। आंख बंद करके, बाजार का शोरगुल चल रहा है, हृदय की धड़कन सुननी चाहिए। अगर बाजार का शोरगुल चलता रहे और आपको अपने हृदय की धड़कन सुनाई पड़ने लगे, आप समझना कि मंजिल बहुत करीब आ रही है। सूक्ष्म को सुनने की कोशिश बढ़ाए जाना चाहिए। स्थूल से हटाते रहना चाहिए अपने को। स्थूल घटता रहेगा, लेकिन परिधि पर; और केंद्र पर सूक्ष्म की प्रतीति होने लगे। _ 'महा रूप की रूप-रेखा नहीं होती।'
जिस रूप की रूप-रेखा होती है वह सीमित ही है। इसलिए परमात्मा की कोई प्रतिमा नहीं हो सकती। - इसलिए हमने परमात्मा का जो गहनतम प्रतीक बनाया है वह शिवलिंग है। उसमें कोई रूप नहीं है; अरूप है। एक
अंडाकार आकृति है। अंडाकार आकृति जीवन की गति का प्रतीक है। सभी जीवन की गति वर्तुलाकार है, अंडाकार है। शिवलिंग सिर्फ एक अंडाकार आकृति है जिसमें कोई रूप नहीं है। अरूप है। परमात्मा का कोई रूप नहीं हो सकता; क्योंकि रूप सीमा देगा। और जहां सीमा है वहां बंधन है। जहां सीमा है वहां मृत्यु है। जहां सीमा है वहां अज्ञान है, अविद्या है।
'महा रूप की रूप-रेखा नहीं होती; और ताओ अनाम है, छिपा है।' स्वभाव अनाम है, और छिपा है। सत्य अनाम है, और छिपा है। 'और यह वही ताओ है जो दूसरों को शक्ति देने और आप्तकाम करने में पटु है।'
यह जो छिपा हुआ मूल स्रोत है धर्म का, सत्य का, इसी से ही सारी ऊर्जा उठती है। इसी से फूल खिलते हैं, इसी से पक्षी आकाश में उड़ते हैं, इसी से तारे चलते हैं, सूर्य प्रकाशित होता है। इसी से चेतना आविर्भूत होती है। इसी से चेतना समाधि तक पहुंचती है। सभी का स्रोत, सभी शक्तियों का मूल उदगम; लेकिन अनाम, छिपा हुआ। जैसे बीज जमीन में छिप जाते हैं, फिर जड़ें बनती हैं और वृक्ष आकाश की तरफ उठता है। आकाश की तरफ उठता हुआ वृक्ष जमीन में छिपी हुई जड़ों पर निर्भर होता है। नीचे से जड़ें काट दो, ऊपर से वृक्ष तिरोहित हो जाएगा। जो भी प्रकट है, वह अप्रकट में उसकी जड़ें होती हैं।
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