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स्वर्ग और पृथ्वी का आलिंगन
लाओत्से कहता है कि जब स्वर्ग और पृथ्वी आलिंगन में होते हैं...।
पृथ्वी से अर्थ है आपकी परिधि, आपके भीतर जो पौदगलिक है, पदार्थ है, वह। और स्वर्ग से अर्थ है आपका चैतन्य, आपकी आत्मा, आपके भीतर वह जो अपौदगलिक है, वह। - 'जब दोनों आलिंगन में होते हैं, तब मीठी-मीठी वर्षा होती है।'
बड़ा कठिन है उसको कहना कि क्या होता है, जब आपकी आत्मा और आपका व्यक्तित्व दोनों आलिंगन में होते हैं। जब आपके भीतर कोई फासला नहीं होता, जब आपके भीतर कोई भविष्य नहीं होता, वर्तमान के क्षण में आप पूरे के पूरे इकट्ठे होते हैं, कोई विच्छेद नहीं, कोई खंड-खंड स्थिति नहीं, जब आप अखंड होते हैं, तब क्या होता है।
लाओत्से कहता है, 'तब, दि हेवन एंड अर्थ ज्वाइन एंड दि स्वीट रेन फाल्स, बियांड दि कमांड ऑफ मेन यट ईवनली अपान आल। तब होती है मीठी-मीठी वर्षा, मनुष्य के वश के बाहर, लेकिन सबके ऊपर समान।'
इस वर्षा को आप आदेश नहीं दे सकते, इस वर्षा को आप कोशिश करके नहीं घटा सकते। आपकी चेष्टा से यह वर्षा नहीं आ सकती। आप निमंत्रण दे सकते हैं, आदेश नहीं; आप पुकार सकते हैं, खींच नहीं सकते। आप प्रार्थना कर सकते हैं और प्रतीक्षा। यह वर्षा प्रसाद है, ग्रेस है।
शब्द बड़े साधारण चुने हैं लाओत्से ने, 'मीठी-मीठी वर्षा।'
थोड़ा सोचें, कल्पना करें भीतर वर्षा की, जैसे प्राण प्यासे हों वर्षों से, जन्मों से, और भीतर की सब भूमि तप्त हो, दरारें पड़ गई हों और भीतर पूरी आत्मा में एक ही प्यास, एक ही पुकार वर्षा की हो-और तब वर्षा हो। इस मिलन में प्यास तृप्त हो जाती है। वह जो जन्मों-जन्मों की प्यास थी कि कुछ चाहिए, कुछ चाहिए, और कुछ भी मिल जाए तो भी तृप्ति नहीं होती थी, जो भी मिल जाए वही व्यर्थ हो जाता था और मांग आगे बढ़ जाती थी, क्षितिज की तरह वासना हटती चली जाती थी; अचानक इस मिलन में सब चाह खो जाती है, सब वासना तिरोहित हो जाती है; क्षितिज घर में आ जाता है। कहीं कुछ जाने को नहीं रह जाता; सब पा लिया, कुछ पाने को शेष नहीं रहा; ऐसी गहन तृप्ति हो जाती है।
एक सूफी फकीर के संबंध में मैंने सुना है। उसके मरने के दिन करीब थे। रहता तो एक छोटे झोपड़े में था, लेकिन एक बड़ा खेत और एक बड़ा बगीचा भक्तों ने उसके पास लगा रखा था। मरने के कुछ दिन पहले उसने कहा कि अब मैं मर जाऊंगा; ऐसे तो जिंदा में भी इस बड़ी जमीन की मुझे कोई जरूरत न थी, यह झोपड़ा काफी था; और मर कर तो मैं क्या करूंगा! मर कर तो मुझे तुम इस झोपड़े में दफना देना; यह काफी है। तो उसने एक तख्ती लगा दी पास के बगीचे पर कि जो भी व्यक्ति पूर्ण संतुष्ट हो, उसको यह बगीचा मैं भेंट करना चाहता हूं। बड़ा खतरनाक आदमी रहा होगा। जो भी व्यक्ति पूर्ण संतुष्ट हो, उसको मैं यह बगीचा भेंट करना चाहता हूं।
अनेक लोग आए, लेकिन खाली हाथ लौट गए। खबर सम्राट तक पहुंची। एक दिन सम्राट भी आया। और सम्राट ने सोचा कि औरों को लौटा दिया, ठीक; मुझे क्या लौटाएगा! मुझे क्या कमी है? मैं संतुष्ट हूं; सब जो चाहिए वह मेरे पास है। सम्राट भीतर आया और उसने फकीर से कहा कि क्या खयाल है? अनेक लोग आए और वापस लौट गए; मैं भी आया हूं।
तो उस फकीर ने कहा कि अगर तुम संतुष्ट थे तो आए ही क्यों? यह तो उसके लिए है जो आएगा ही नहीं, और मैं उसके पास आऊंगा। अभी वह आदमी इस गांव में नहीं है। वह यहां नहीं आएगा; वह क्यों आएगा?
एक ऐसा संतोष का क्षण भीतर घटित होता है, जब आपकी चाह नहीं होती, दौड़ नहीं होती और आप अपने साथ राजी होते हैं। उस क्षण में परमात्मा आता है; आपको उसके द्वार पर मांगने जाना नहीं पड़ता। उस दिन उसकी मीठी वर्षा आपके ऊपर हो जाती है। वही निर्वाण है।