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________________ सच्चे संत को पहचानना कठिन है हो। लोग कहें कि तुम चरित्रवान हो; लोग कहें कि अदभुत है तुम्हारा संकल्प; लोग स्वागत-समारंभ करें; उसके बल से मैं जी सकता है, उसके बल से मैं दृढ़ हो सकता हूं। मेरी दृढ़ता दूसरों के हाथों से मुझे मिलती है; दूसरों की आंखों से मुझे मिलती है। __ लेकिन जो आदमी सच में संकल्पवान है, सच में सबल है, वह हमें दुर्बल दिखाई पड़ेगा। दुर्बल इसलिए दिखाई पड़ेगा कि कभी वह अपनी शक्ति को प्रदर्शित करने की चेष्टा नहीं करेगा, कभी अपनी शक्ति के लिए बाह्य आयोजन नहीं करेगा, और कभी अपनी शक्ति के लिए हमसे सहारा नहीं मांगेगा। कठिन है। क्योंकि जहां हम जीते हैं वहां हम सभी निर्बल हैं। और हम सभी इंतजाम करके जीते हैं, इंतजाम हमारी सबलता होती है। और अक्सर, आपको पता होगा अपने ही अनुभव से कि दुर्बलता के क्षण में आप बाहर से बड़े सबल दिखलाई पड़ने की कोशिश करते हैं। जब लगता है कि भीतर कहीं टूट न जाऊं तब आप बाहर से बिलकुल हिम्मत जुटा कर खड़े रहते हैं। लेकिन जब आप भीतर आश्वस्त होते हैं तो बाहर आपको हिम्मत जुटाने की जरूरत नहीं होती। आप निश्चित विश्राम कर सकते हैं। एक महिला को मेरे पास लाया गया। युनिवर्सिटी में प्रोफेसर है। पति की मृत्यु हो गई तो वह रोई नहीं। लोगों ने कहा, बड़ी सबल है! सुशिक्षित है, सुसंस्कृत है! जैसे-जैसे लोगों ने उसकी तारीफ की वैसे-वैसे वह अकड़ कर पत्थर हो गई। आंसुओं को उसने रोक लिया। जो बिलकुल स्वाभाविक था, आंसू बहने चाहिए। जब प्रेम किया है, और जब प्रेम स्वाभाविक था, तो जब प्रियजन की मृत्यु हो जाए तो आंसुओं का बहना स्वाभाविक है। वह उसका ही अनिवार्य हिस्सा है। लेकिन लोगों ने तारीफ की और लोगों ने कहा, स्त्री हो तो ऐसी! इतना प्रेम था, प्रेम-विवाह था, मां-बाप के विपरीत विवाह किया था, और फिर भी पति की मृत्यु पर अपने को कैसा संयत रखा, संयमी रखा! संकल्पवान है, दृढ़ है, आत्मा है इस स्त्री के पास! इन सब बकवास की बातों ने उस स्त्री को और अकड़ा दिया। तीन महीने बाद उसे हिस्टीरिया शुरू हो गया, फिट आने लगे। लेकिन किसी ने भी न सोचा कि इस हिस्टीरिया के जिम्मेवार वे लोग हैं जिन्होंने कहा, इसके पास आत्मा है, शक्ति है, दृढ़ता है। वे ही लोग हैं। क्योंकि भीतर तो रोना चाहती थी, लेकिन कमजोरी प्रकट न हो जाए तो अपने को रोके रखा। यह रोकना उस सीमा तक पहुंच गया जहां रोकना फिट बन जाता है, यह सीमा उस जगह आ गई जहां कि फिर अपने आप कंप पैदा होंगे। सारा शरीर कंपने लगता और वह बेहोश हो जाती। यह बेहोशी भी मन की एक व्यवस्था है। क्योंकि होश में जिसे वह प्रकट नहीं कर सकती, फिर उसे बेहोशी में प्रकट करने के अतिरिक्त कोई उपाय नहीं रह गया। शरीर तो प्रकट करेगा ही। हिस्टीरिया की हालत में लोटती-पोटती, चीखती-चिल्लाती। लेकिन उसका जिम्मा उस पर नहीं था, और कोई उससे यह नहीं कह सकता कि तेरी कमजोरी है। यह तो बीमारी है। और होश तो खो गया, इसलिए जिम्मेवारी उसकी नहीं है। होश में तो वह सख्त रहती। जब मेरे पास उसे लाए तो मैंने कहा कि उसे न कोई बीमारी है, न कोई हिस्टीरिया है। तुम हो उसकी बीमारी। . तुम जो उसके चारों तरफ घिरे हो। तुम कृपा करके उसके अहंकार को पोषण मत दो; उसे रो लेने दो। वह जो बेहोशी में कर रही है उसे होश में कर लेने दो। उसे छाती पीटनी है, पीटने दो; उसे गिरना है, लोटना है जमीन पर, लोटने दो। स्वाभाविक है। जब किसी के प्रेम में सुख पाया हो तो उसकी मृत्यु में दुख पाना भी जरूरी है। सुख तुम पाओ, दुख कोई और थोड़े ही पाएगा? तो मैंने उस स्त्री को कहा कि तू सुख पाए, तो दुख मैं पाऊं? या कौन पाए? मैंने उससे पूछा कि तूने अपने पति से सुख पाया? उसने कहा, बहुत सुख पाया; मेरा प्रेम था गहरा। 257
SR No.002374
Book TitleTao Upnishad Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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