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________________ ताओ उपनिषद भाग ४ पाए। तो जब तक हमारे पास हृदय की आंख न हो, उनसे कोई संबंध नहीं जुड़ पाता। इतिहास हमारा झूठा है, अधूरा है, और क्षुद्र है। हम सोच भी नहीं सकते कि बुद्ध ने इतिहास में क्या किया। हम सोच भी नहीं सकते कि क्राइस्ट ने इतिहास में क्या किया। लेकिन हिटलर ने क्या किया, वह हमें साफ है; माओ ने क्या किया, वह हमें साफ है; गांधी ने क्या किया, वह हमें साफ है। जो परिधि पर घटता है वह हमें दिख जाता है। इसलिए लाओत्से कहता है, 'महा चरित्र अपर्याप्त मालूम पड़ता है। ठोस चरित्र दुर्बल दिखता है।' गहरी दृष्टि चाहिए। ठोस चरित्र दुर्बल दिखता है; दुर्बल चरित्र बड़ा ठोस दिखता है; इस मनोविज्ञान को थोड़ा खयाल में ले लें। असल में, दुर्बल चरित्र का व्यक्ति हमेशा ठोस दीवारें अपने आस-पास खड़ी करता है; ठोस चरित्र का व्यक्ति दीवार खड़ी नहीं करता। उसकी कोई जरूरत नहीं है; पर्याप्त है वह स्वयं। जैसे देखें, कमजोर चरित्र का व्यक्ति हो तो नियम लेता है, व्रत लेता है, संकल्प लेता है; ठोस चरित्र का व्यक्ति संकल्प नहीं लेता। लेकिन जो व्यक्ति संकल्प लेता है वह हमें ठोस मालूम पड़ेगा। एक आदमी तय करता है कि मैं तीन महीने तक जल पर ही जीऊंगा, अन्न नहीं लूंगा; और अपने संकल्प को पूरा कर लेता है। हम कहेंगे, बड़े ठोस चरित्र का व्यक्ति है। स्वभावतः, दिखाई पड़ता है, अब इसमें कुछ कहने की बात भी नहीं है। कोई प्रमाण खोजने की जरूरत नहीं है। तीन महीने तक, नब्बे दिन तक जो आदमी बिना अन्न के, जल पर रह जाता है, हम जानते हैं कि इसके पास चरित्र है, संकल्प है, बल है, दृढ़ता है। लेकिन मनसविद से पूछे। यह आदमी भीतर बहुत दुर्बल है; इसको अपने पर भरोसा नहीं है। भरोसा लाने के लिए यह सब तरह के उपाय कर रहा है। यह तीन महीने तक संकल्प को पूरा करना भी स्वयं में भरोसा पैदा करने की चेष्टा है। यह आदमी निर्बल न हो तो संकल्प ही नहीं लेगा। संकल्प ही निर्बलता को मिटाने की, छिपाने की, दबाने की चेष्टा है। अगर इसे भोजन नहीं लेना है तो नहीं लेगा; तीन महीने नहीं, तीन साल नहीं लेना है तो नहीं लेगा। लेकिन इसका संकल्प नहीं लेगा। भोजन नहीं लेना है तो इसे अपने पर भरोसा है, संकल्प खड़ा करने की जरूरत नहीं है। संकल्प का मतलब यह है कि मुझे अपने पर भरोसा तो है नहीं, तो मैं एक संकल्प खड़ा करता हूं, मैं दांव लगाता हूं, मैं संकल्प की घोषणा कर देता हूं। अब दूसरे लोग भी मेरे लिए सहारा होंगे। अगर मैं भोजन करने का तीन दिन बाद विचार करने लगू तो मुझे खुद ही ग्लानि लगेगी कि अब यह तो बड़ी मुश्किल बात हो गई। इज्जत का भी सवाल है। अहंकार का सवाल है। संकल्प अहंकार का सवाल है। अब लोग क्या कहेंगे? इसलिए संकल्प लेने वाले जाहिर में संकल्प लेते हैं, एकांत में नहीं। क्योंकि एकांत में तो उन्हें डर है, टूट जाएगा। जैन उपवास करते हैं। उनके पर्युषण के दिन करीब आ रहे हैं, तब। तब वे करीब-करीब दिन मंदिर में गुजार देते हैं। क्योंकि मंदिर में, कितना ही विचार आए भूख का, भोजन का, तो भी कोई उपाय नहीं है। और फिर चारों तरफ उन्हीं जैसे लोग इकट्ठे हैं, जो एक-दूसरे से सहारा मांग रहे हैं। फिर उनके मुनि और उनके साधु बैठे हुए हैं जो उन पर दृष्टि रखे हुए हैं और वे उन पर दृष्टि रखे हुए हैं कि कोई चूक न जाए पथ से। चूकने का सवाल क्या है? अगर आदमी सबल है, अगर आदमी सच में ही सबल है, तो चूकने का सवाल क्या है? और किसके सहारे की जरूरत है? ये सारे संकल्प निर्बलता के लक्षण हैं। लेकिन इन संकल्पों को पूरा किया जा सकता है। क्योंकि निर्बल आदमी का भी अहंकार है। सच तो यह है कि निर्बल आदमी का ही अहंकार होता है; सबल आदमी को अहंकार की कोई जरूरत नहीं होती। वह अपने में इतना आश्वस्त होता है कि अब और किसी अहंकार की जरूरत नहीं होती। अहंकार की जरूरत का अर्थ है कि मैं अपने में आश्वस्त नहीं हूं, तुम मुझे आश्वस्त करो; तुम कहो कि तुम महान 256
SR No.002374
Book TitleTao Upnishad Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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