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ताओ उपनिषद भाग ४
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वह जो सामान्य बुद्धि है, वह जो हम सबकी बुद्धि है, उस बुद्धि के अनुसार हमें श्रेष्ठ चरित्र खाली मालूम पड़ेगा। क्योंकि हम जिसे चरित्र कहते हैं वह तो चरित्र है ही नहीं। हम जिसे चरित्र कहते हैं उसे ही हम एक शिखर की भांति देखने के आदी हो गए हैं। ताओ का जो चरित्र है, वस्तुतः निर्मल धर्म का जो चरित्र है, वह तो हमें घाटी की तरह दिखाई पड़ेगा। क्योंकि हम उलटे खड़े हैं। वह जो शिखर की भांति है, हमें घाटी की तरह दिखाई पड़ेगा। ऐसे ही जैसे आप उलटे खड़े हों, शीर्षासन करते हों, और सारा जगत आपको उलटा चलता हुआ मालूम पड़े। अगर आप भूल जाएं कि आप शीर्षासन कर रहे हैं तो सारा जगत उलटा चलता हुआ मालूम पड़े। स्मरण आ जाए कि मैं शीर्षासन कर रहा हूं और आप सीधे खड़े हो जाएं तो सारा जगत आपके साथ एक क्षण में सीधा हो जाता है।
आप कैसे खड़े हैं, इस पर निर्भर है। क्यों शुद्ध चरित्र, निर्मल चरित्र, श्रेष्ठ चरित्र घाटी की भांति खाली दिखाई पड़ेगा? थोड़ा सूक्ष्म है; समझना जरूरी है।
अगर एक व्यक्ति प्रेम का ऊपर से आचरण कर रहा हो, उसके हृदय में प्रेम का आविर्भाव न हुआ हो-जैसा कि सभी आम व्यक्तियों के जीवन में होता है, वे केवल प्रेम का आचरण करते हुए मालूम होते हैं, प्रेम का अंतस उनके पास नहीं होता—तो जो व्यक्ति प्रेम का आचरण करता है उसका प्रेम हमें शिखर की भांति मालूम पड़ेगा । क्योंकि वह अपने प्रेम को सब भांति प्रकट करेगा। प्रेम अगर भीतर हो तो प्रकट करने की जरूरत भी नहीं है। प्रेम भीतर न हो तो प्रकट किए बिना उसके होने का कोई उपाय नहीं रह जाता। तो जिस व्यक्ति के भीतर प्रेम नहीं है, वह प्रेम का बहुत ज्यादा व्यवहार करेगा; शब्दों से, विचार से, सब भांति जतलाएगा कि उसे प्रेम है। और इस जताने वाले व्यक्ति का प्रेम हमें दिखाई भी पड़ेगा। क्योंकि हम आचरण को ही देख सकते हैं, अंतस को नहीं। जो ऊपर प्रकट होता है उस तक ही हमारी पहुंच है; जो भीतर गहरे में छिपा होता है उस तक हमारी पहुंच नहीं है। हम बीज को नहीं देख सकते, हम तो केवल फूल को ही देख सकते हैं, जो प्रकट हो गए हैं। फिर चाहे वह फूल नकली ही क्यों न हो, कागज का ही क्यों न हो, चाहे उस फूल पर सुगंध ऊपर से क्यों न छिड़की गई हो। लेकिन हमें बीज में छिपा फूल दिखाई नहीं पड़ सकता। उसके लिए बड़ी गहरी आंखें चाहिए। उतनी गहरी आंख तृतीय कोटि के मनुष्य के पास नहीं है। ऊपर-ऊपर देख सकता है।
आपको भी अंदाज होगा कि जब आपका किसी से प्रेम नहीं होता, और आप प्रेम जतलाना चाहते हैं, प्रेम जतला कर कोई फायदा उठाना चाहते हैं, तब आप प्रेम में बहुत ही मुखर हो जाते हैं, तब आप प्रेम की अभिव्यक्ति में बड़ी तीव्रता दिखलाते हैं। भीतर की कमी को छिपाने के लिए बाहर की अभिव्यक्ति करते हैं। जिस दिन आपको डर होता है कि आपने कुछ ऐसा काम किया है कि आपकी पत्नी अगर जान जाए तो उपद्रव होगा, उस दिन आप भेंट लेकर घर पहुंचते हैं, फूल ले जाते हैं, आइसक्रीम ले जाते हैं। उस दिन आप प्रेम को प्रकट करते हैं। कुछ है जिसे छिपाना है; भीतर कोई जगह खाली है जहां प्रेम नहीं है, उसे बाहर के किसी आवरण से भरना है।
यह जो ऊपर की अभिव्यक्ति है, इस पर बहुत जोर बढ़ता जा रहा है। पश्चिम में तो रोज किताबें लिखी जाती हैं— कैसे प्रेम करें। उसमें सभी किताबों में अनिवार्यतः एक बात होती है कि प्रेम को छिपाए मत रखें, प्रकट करें। क्योंकि जो छिपा है उसे कोई भी नहीं जानता । उसे बोल कर कहें, उसे आचरण से जतलाएं, उसे व्यवहार से दिखाएं। आप अपनी पत्नी को प्रेम करते हैं, पश्चिम में लिखी जाने वाली किताबें कहती हैं, इतना काफी नहीं है। आप इसे कहें भी कि मैं प्रेम करता हूं। इसे आप रोज दोहराएं भी, और इसे आप किसी न किसी भांति व्यवहार से भी जाहिर करें। ये किताबें इस बात की खबर देती हैं कि आदमी के भीतर से प्रेम मर चुका है, या आदमी समर्थ ही नहीं रहा प्रेम को समझने में। जब प्रेम होता है तो जतलाने की कोई भी जरूरत नहीं होती। जब प्रेम होता है तो यह कहना कि मैं प्रेम करता हूं, बेहूदा मालूम पड़ेगा, ओछा मालूम पड़ेगा, क्षुद्र मालूम पड़ेगा, व्यर्थ मालूम पड़ेगा। इसे उठाना, इसकी