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________________ र्शन दृष्टि पर निर्भर है। हम वही देख पाते हैं जो हम देख सकते हैं। जो हमें दिखाई पड़ता है उसमें हमारी आंखों का दान है। हम जैसे हैं वैसा ही हमें दिखाई पड़ता है, और हम जैसे नहीं हैं उससे हमारा कोई भी संबंध नहीं जुड़ पाता। यह स्वाभाविक भी है। लेकिन इसका हमें स्मरण नहीं है। इसलिए जो हम देखते हैं, हम सोचते हैं वह सत्य है। बहुत संभावना यही है कि वह हमारी आंखों का ही प्रतिबिंब है। सत्य को तो वही देख पाता है जो सभी तरह की दृष्टियों से, सभी तरह की आंखों से मुक्त हो जाता है। आंख पर रंगीन चश्मा हो तो जगत रंगीन दिखाई पड़ने लगता है। और अगर चश्मा भूल जाए तो हम सोचेंगे कि जगत इसी रंग का है। अंधे को प्रकाश दिखाई नहीं पड़ता तो अंधे के लिए यही सत्य है कि प्रकाश नहीं है। लेकिन अंधे को न दिखाई पड़ने से प्रकाश का न होना सिद्ध नहीं होता। हर प्राणी के पास भिन्न तरह की आंखें हैं। वैज्ञानिक निरंतर विचार करते हैं कि जगत विभिन्न शरीरों से कैसा दिखाई पड़ता होगा। मनुष्य जैसा जगत को देखता है, वैसा जगत है? या वैसा इसलिए दिखाई पड़ता है कि मनुष्य के पास एक खास तरह की आंख है? मनुष्य के पास ही और पशुओं की लंबी कतार है। उन पशुओं को भी जगत दिखाई पड़ता है, लेकिन उन्हें ऐसा दिखाई नहीं पड़ सकता जैसा मनुष्य को दिखाई पड़ता है। उनकी आंखें भिन्न हैं; उनके देखने का ढंग भिन्न है। उनकी वासनाएं भिन्न हैं; उनके व्यक्तित्व का ढांचा भिन्न है। उस पूरी भिन्नता के बीच से जगत बिलकुल अलग ही दिखाई पड़ता होगा। - लेकिन हमारे पास कोई उपाय भी नहीं कि हम जान सकें कि पशु-पक्षी या पौधे जगत को कैसा जानते हैं। हम अपने भीतर बंद हैं। हर आदमी अपने शरीर के यंत्र के भीतर बंद है-हर पशु, हर पक्षी, हर पौधा। और जगत से हमारा उतना ही संबंध होता है जितनी हमारे पास इंद्रियां हैं, और जैसी इंद्रियां हैं। यह बात ठीक से समझ में आ जाए तो हमारा आग्रह क्षीण हो जाए, तो फिर हम अपनी दृष्टि को ही सत्य करने की कोशिश छोड़ दें। फिर हम ऐसा ही कहें कि ऐसा मुझे दिखाई पड़ता है; मुझे पता नहीं ऐसा है भी या नहीं। जिस व्यक्ति को यह खयाल में आ जाए, उसका आग्रह, मतांधता, अंधता कम हो जाएगी। और एक ऐसी घड़ी भी आ जाएगी जब धीरे-धीरे वह सभी दृष्टियों को छोड़ देगा, सभी पक्षपातों को, सभी धारणाओं को। और जब कोई व्यक्ति सारी धारणाएं, सारे पक्षपात, सारी दृष्टियों को छोड़ कर देखने में समर्थ हो पाता है, तब उसे वह दिखाई पड़ता है जो है। दृष्टियों से मुक्त होकर जो दर्शन होता है वही सत्य का दर्शन है। लाओत्से के ये सूत्र, सामान्य तृतीय श्रेणी के मनुष्य को जैसा दिखाई पड़ता है, उसकी खबर देते हैं। 'श्रेष्ठ चरित्र घाटी की तरह खाली प्रतीत होता है।' 249
SR No.002374
Book TitleTao Upnishad Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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