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________________ अस्तित्व अबस्तित्व से घिरा है जान सकते हैं। इससे बड़ी कोई भ्रांत धारणा नहीं हो सकती। व्यवहार के अध्ययन से भीतर के आदमी को नहीं जाना जा सकता। क्योंकि हम देखते हैं नाटक में, फिल्म में, कोई आदमी प्रेम का व्यवहार कर रहा है, कोई आदमी क्रोध का व्यवहार कर रहा है। लेकिन भीतर, भीतर न क्रोध है, न भीतर प्रेम है। भीतर वह आदमी अपने घर जाने की सोच रहा है; कब नाटक पूरा हो जाए। और जिस भांति प्रेम उसने नाटक के मंच पर किया है वैसा ही प्रेम वह अपनी प्रेयसी से भी करता हुआ दिखाई पड़ेगा। दोनों व्यवहार में हमें फर्क करना मुश्किल होगा। लेकिन उसके लिए फर्क है। क्योंकि उसकी प्रेयसी के लिए भीतर से कुछ बह रहा है। अभिनय में बाहर से कुछ आरोपित किया जा रहा है। मैंने सुना है कि एक ईसाई धर्मगुरु अपने दंत-चिकित्सक के पास गया, डेंटिस्ट के पास गया। उसके दांत गिर गए थे बहुत से, और उसने सब दांत साफ करवा कर नए कृत्रिम दांत लगवाने चाहे। दांत उसके अलग कर दिए गए। और कृत्रिम दांत बनने पर उसे बुलाया गया। जैसे ही चिकित्सक ने उसके कृत्रिम दांत उसके मुंह में बिठाए, चिकित्सक एकदम हैरान हुआ। क्योंकि जैसे ही दांत उसके मुंह में बैठे, उसने बड़े जोर से आवाज कीः क्राइस्ट! जीसस! वह डाक्टर थोड़ा हैरान हुआ। उसने कहा कि श्रद्धेय, अगर दांत इतना दर्द दे रहे हैं तो मैं उन्हें निकाल कर फिर ठीक करके वापस जमा दूं। ऐसा सुन कर चिकित्सक से धर्मगुरु और भी ज्यादा चकित हुआ। उसने कहा, क्या कहते हो? दांत तो बिलकुल ठीक हैं। दांतों में तो जरा भी गड़बड़ नहीं है। लेकिन ये दो प्यारे शब्द, जीसस और क्राइस्ट, वर्षों से मैं कहना चाहता था—बिना सीटी बजाए। दांत टूट गए थे तो जब भी वह जीसस कहता तो सीटी बजती। तो मुझे पीड़ा नहीं हो रही, मैं बड़ा आनंदित हूं कि वर्षों के बाद ये दो प्यारे शब्द मैं बिना सीटी बजाए कह सकता हूं। लेकिन चिकित्सक ने व्यवहार देख कर समझा कि वह महापीड़ा में है। स्वभावतः कोई भी-क्राइस्ट, जीसस जब उसने कहा होगा तो कोई भी सोचता कि महापीड़ा उसे हो रही है। व्यवहार भीतर की खबर नहीं देता। व्यवहार से हम अनुमान लगा सकते हैं। और इसलिए चूंकि व्यवहार से अनुमान लगाया जा सकता है, भद्रता की जगह हमने सभ्यता को सीख रखा है। सभ्यता सिर्फ ऊपरी आचरण है। शब्द बड़ा अच्छा है सभ्यता। सभ्यता का अर्थ इतना ही होता है। सभा में बैठने की योग्यता। और कोई अर्थ नहीं होता। सभ्य का अर्थ होता है: सभा में जो बिठाया जा सके; उपद्रव न करे, गड़बड़ न करे, लोगों से ठीक व्यवहार करे। सभ्यता का और कोई मतलब नहीं होता। वह बाह्य व्यवहार है। लेकिन भद्रता आंतरिक गुण है। सभ्य आदमी भीड़ में सभ्य होता है, एकांत में असभ्य हो जाता है। आप अपनी पत्नी से जैसा व्यवहार करते हैं अकेले में वैसा व्यवहार आप सड़क पर नहीं करते। चार लोगों के सामने आप ऐसे प्रेम से बोलते हैं जिसका हिसाब नहीं; एकांत में दोनों अपनी साफ शक्लों में आ जाते हैं। पति-पत्नी लड़ रहे हैं और एक मेहमान घर में आ जाए, लड़ाई समाप्त हो जाती है और दोनों के चेहरों पर सभ्यता आ जाती है। सभ्यता दूसरे को ध्यान में रख कर है। लेकिन भद्र आदमी एकांत में भी भद्र होता है। अकेला होता है, तब भी भद्र होता है। भद्र आदमी वस्तुओं के साथ भी भद्र होता है; व्यक्तियों का कोई सवाल नहीं है। रिल्के, कवि रिल्के के बाबत कहा जाता है कि वह अपना जूता भी खोल कर रखता तो ऐसा जैसा किसी व्यक्ति को रख रहा हो; वह अपने कपड़े भी उतारता तो ऐसा धन्यवाद के भाव से कि तुमने मुझे सर्दी में सहायता दी, या धूप में सहायता दी, या वर्षा में सहायता दी, तुम्हारी बड़ी कृपा है। वह अपने वस्त्रों से भी बोलता, अपने जूते से भी बोलता। वह भद्र आदमी था। भद्रता एकांत में भी होगी, अकेले में भी होगी; वस्तुओं के साथ भी होगी। सभ्यता भीड़ में होगी, बाजार में होगी, दूसरों के साथ होगी। और सशर्त होगी। अगर आप सभ्य हैं तो मैं सभ्य हूं, ऐसी शर्त होगी। लेकिन भद्रता 235
SR No.002374
Book TitleTao Upnishad Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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