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________________ ताओ उपनिषद भाग ४ जैनों की धारणा भी वैसी है, बौद्धों की धारणा भी वैसी है। जैन कहते हैं कि हर कल्प के प्रारंभ में पहला तीर्थंकर होगा। फिर हर कल्प में चौबीस तीर्थंकर होंगे। हर कल्प का अंत चौबीसवें तीर्थंकर के साथ हो जाएगा। फिर पहला तीर्थंकर होगा, फिर चौबीस। तो तीर्थंकरों के जीवन के अलग-अलग हिसाब रखने जरूरी नहीं हैं। इसलिए आप जैन के चौबीस तीर्थंकरों की मूर्तियां देखें, एक सी हैं। कोई फर्क नहीं है। सिर्फ नीचे के चिह्न में फर्क है। वह चिह्न भर बताता है कि कौन सी पहले तीर्थंकर की, या चौबीसवें तीर्थंकर की, या बीसवें तीर्थंकर की मूर्ति है। मूर्तियां एक जैसी हैं। वह एसेंशियल है। वह जो तीर्थंकर के भीतर घटती है परम शांति और आनंद, वह उसकी मूर्ति है। उसके चेहरे में जो फर्क होंगे, लंबाई में फर्क होंगे, नाक छोटी-बड़ी होगी, आंख भिन्न होगी; ये गौण बातें हैं। इनका कोई मूल्य नहीं है; यह असार है। ऐसे बहुत तीर्थंकर हो चुके हैं। उनकी बहुत लंबी नाक, छोटी नाक, बड़ी आंख, शरीर की ऊंचाई, मोटाई भिन्न रही है। वह गौण है; उसका हम हिसाब नहीं रखते। वह जो भीतर तीर्थंकरत्व है, वह जो भीतर घटता है सारभूत, हमने उसका हिसाब रख लिया। इसलिए चौबीस तीर्थंकरों की मूर्तियां एक जैसी हैं। होंगी ही; वे भीतर की मूर्तियां हैं। पश्चिम हिसाब रखता है। इसलिए जीसस ऐतिहासिक हैं। उस अर्थ में कृष्ण ऐतिहासिक नहीं हैं। कृष्ण । पौराणिक हैं। पौराणिक का मतलब यह नहीं कि नहीं हुए। पौराणिक का मतलब, बहुत बार हुए और बहुत बार होंगे। ऐतिहासिक का अर्थ है, एक बार हुए और दुबारा नहीं हो सकते; पुनरुक्ति नहीं हो सकती। इसलिए पश्चिम में नए की बड़ी दौड़ है। पूरब में नए की कोई दौड़ नहीं है। क्योंकि नया पुराना हो जाता है, पुराना रोज नया होता रहता है। पूरब में हम कहते हैं, सूर्य के नीचे कुछ भी नया नहीं। पश्चिम में हेराक्लतु ने कहा है, एक ही नदी में दुबारा उतरना असंभव है। नदी प्रतिपल नई हो जा रही है। हम पूरब में कहते हैं, सूर्य के नीचे कुछ भी नया नहीं। पश्चिम कहता है, एक ही नदी में दुबारा उतरना असंभव है; धारा बही जा रही है। लेकिन अगर हम बहुत गौर से देखें तो धारा कहीं भी बहे, वही धारा है। आकाश के बादल बन जाए तो भी वही धारा है; फिर वापस गंगोत्री में गिरे तो भी वही धारा है; फिर गंगा में बहे तो भी वही धारा है। तो हम यह कहते हैं कि दूसरी गंगा में उतरना ही असंभव है; वह वही गंगा है। ये जो दो दृष्टिकोण हैं, उनमें ताओ वर्तुलाकार दृष्टिकोण को मानता है। इसके परिणाम होंगे। अगर आप मानते हैं कि जीवन एक रेखाबद्ध विकास है तो आपके जीवन में बड़ा तनाव होगा। क्योंकि प्रतिपल कुछ हो रहा है नया जिससे आपको समायोजित होना है, एडजस्ट होना है; प्रतिपल नए के साथ आपको आयोजित होना है; फिर से अपने को जमाना है। आपका जीवन एक लंबी चिंता और तनाव होगा। अगर सब वही हो रहा है जो सदा होता रहा है तो आप अपने घर में हैं। रोज-रोज आयोजन, रोज-रोज समायोजन, रोज-रोज अपने को नए के साथ बिठाने की कोई भी जरूरत नहीं; सब बैठा ही हुआ है। इसलिए पश्चिम एक शांत सरोवर की तरह नहीं हो पाता; तूफान है। पूरब बिलकुल शांत सरोवर की तरह है, जहां कि तूफान के बहुत कारण भी मौजूद हों, तब भी सरोवर शांत ही बना रहता है। हम बहुत एक्साइटेड नहीं हो पाते, बहुत उत्तेजित नहीं हो पाते। क्रांति में हमें बहुत रस नहीं आता, क्योंकि हम जानते हैं क्रांति बहुत बार हुई है, और चीजें वहीं लौट कर आ जाती हैं जहां से शुरू होती हैं। तो हम बीच में जो शोरगुल करते हैं, बहुत उछलकूद मचाते हैं, बहुत परेशान होते हैं, वह व्यर्थ ही जाता है। क्योंकि चीजें वहीं लौट आती हैं जहां से शुरू होती हैं। पूर्वीय जीवन की जो दृष्टि है वह साधना के लिए बड़ी अनूठी भूमिका है। ऐसा खयाल में आ जाए तो उत्तेजना विलीन हो जाती है और मन अपने आप शांत होने लगता है। 230
SR No.002374
Book TitleTao Upnishad Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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