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ताओ उपनिषद भाग ४
व्यभिचार वे करें; गुरु को धोखा देकर उसकी पत्नी को ले भागें; सब करें, फिर भी देवता हैं। जरूर कुछ कारण होगा। जिन्होंने उनको जन्म दिया उनको कुछ अड़चन नहीं मालूम पड़ी, अन्यथा वे इनको काट-छांट कर देते। उनको ठीक लगा।
__ थोड़ा लौटें; युधिष्ठिर को हम धर्मराज कहते हैं। युधिष्ठिर जुआ खेलें तो धर्मराज होने में कोई अड़चन नहीं। युधिष्ठिर द्रौपदी को दांव पर लगा दें। आप जरा लगा कर देखें, और अगर कोई आपको धर्मराज कह दे तो चमत्कार है। कोई आदमी आप न खोज पाएंगे जो आपको धर्मराज कहे जब आप द्रौपदी को जुए पर हार आएं। लेकिन जिन लोगों ने युधिष्ठिर को धर्मराज कहा, उन्हें इसमें कुछ अड़चन नहीं मालूम पड़ी होगी, तभी तो! इसमें कोई जरा भी अड़चन नहीं मालूम पड़ी।
उनकी चेतना की धारणा उनका ईश्वर है। उनका देवता, उनका धर्म उनकी चेतना से ही तो निकलेगा। जैसे-जैसे चेतना विकसित होगी वैसे-वैसे ईश्वर का परिष्कार होगा। और जब चेतना पूरी तरह विकसित होगी तो आकार खो जाएगा ईश्वर का, वह निराकार हो जाएगा। क्योंकि आकार कितना ही सुंदर रहे, उसमें असुंदरता बनी ही रहेगी। और आकार को हम कितना ही सम्हालें और सुंवारें, आकार में भूल-चूक होती ही रहेगी। और फिर आकार की धारणा तो हर युग के साथ बदलती चली जाएगी। इसलिए जब चेतना आखिरी ऊंचाई पर पहुंचती है तो परमात्मा निराकार हो जाता है। निराकार इसलिए हो जाता है कि अब उसमें अशुद्धि का कोई भी उपाय न रहा। निराकार कैसे अशुद्ध होगा? आकार से अशुद्धि प्रवेश पा सकती थी। निराकार का अर्थ हुआ इतनी पूर्ण शुद्धता कि वहां आकार की अशुद्धता भी नहीं है। तो जब भी चेतना आखिरी ऊंचाई पर आती है तो निराकार ब्रह्म जन्म लेता है।
चेतना के अनुसार ईश्वर निर्मित होता है। जैसी चेतना वैसा ईश्वर। आपके ईश्वर की धारणा को देख कर, आप क्या हैं, यह कहा जा सकता है। आपका ईश्वर किस ढंग का है, उसे देख कर, आप क्या हैं, यह कहा जा सकता है। क्योंकि आपका ईश्वर आपसे जन्म पाता है।
'आध्यात्मिक शक्ति के बिना देवता नष्ट-भ्रष्ट हो जाएंगे। भराव के बिना घाटियां खंड-खंड हो जाएंगी। जीवनदायी शक्ति के बिना सब चीजें नाश को प्राप्त होंगी। आर्यत्व की शक्ति के बिना राजा और भूमिपति पतित हो जाएंगे।'
इतिहासज्ञ सोचते हैं कि राजाओं, सम्राटों, भूमिपतियों का ह्रास इसलिए हुआ कि वे शोषण कर रहे थे, कि वे लोगों का खून चूस रहे थे, कि वे लोगों को गुलाम बना रहे थे। लेकिन यह बात सच नहीं है। इसमें अधूरा सच है, लेकिन यह बात सच नहीं है। सम्राटों का पतन इसलिए हुआ कि वे केवल सम्राट रह गए; उनके भीतर जो भराव था वह खो गया; उनके भीतर जो परमात्मा की गरिमा थी वह खो गई। राम जैसे सम्राट को उतारना असंभव होगा। लेकिन रावण जैसे सम्राट को कब तक चलाए रखिएगा?
सम्राट होना एक उपलब्धि थी, एक साधना थी, एक क्रम था परिष्कार का। तो सम्राट के घर जब कोई बेटा पैदा होता और उसे सम्राट बनने का मौका आने वाला हो तो उसे सब तरह की प्रक्रियाओं से गुजरना होता था। उसमें योग के अनुष्ठान अनिवार्य थे। उसे ध्यान की गहरी प्रक्रियाएं आनी ही चाहिए। उसे शांत होने की कला आनी ही चाहिए। क्योंकि बाहर के सिंहासन पर बैठ जाना तो बहुत कठिन नहीं है, लेकिन बाहर के सिंहासन का बड़ा मूल्य नहीं है। उसे भीतर से भी सम्राट होना चाहिए। उसे भीतर से भी, जिसको हम कहें अभिजात, भीतर से भी उसे श्रेष्ठ और कुलीन और आर्य होना चाहिए।
इसके कई परिणाम हुए, इधर इस तरह समझें। हिंदुस्तान में जैनों के चौबीस तीर्थंकर राजाओं के पुत्र हैं। उनकी तैयारी तो राजा होने के लिए करवाई गई थी; राजा होने वाले थे। उनकी तैयारी तो बाह्य सिंहासन के लिए करवाई गई
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