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________________ ताओ उपविषद भाग ४ आपके कृत्य में और आपके विचार में फासला होता है। आप पहले सोचते हैं, फिर करते हैं। या कभी आप कर लेते हैं तो फिर पीछे बहुत पछताते हैं कि सोचा क्यों नहीं! सोच लेते तो ऐसा कभी न होता। आपका सोच-विचार और आपका कृत्य बड़े फासले पर हैं। कृष्ण का कृत्य ही उनकी चेतना है। उसमें कहीं कोई सोच-विचार नहीं है। जो हो गया है, वह उनकी परिपूर्णता से हो गया है। न तो इसे सोचा है; न इसके पीछे वे सोचेंगे। इसलिए कृष्ण के जीवन में कोई पश्चात्ताप नहीं है। न कोई पूर्व योजना है, न कोई पश्चात्ताप है। कृत्यों की एक श्रृंखला है। और कृष्ण हर क्षण में सच्चे हैं। और एक क्षण उन्हें दूसरे क्षण के लिए बांध नहीं पाता। अतीत बंधन नहीं है; उनकी ईमानदारी हर क्षण में सहज प्रवाहित है। जीवन जहां ले जाए, वे जाने को तैयार हैं। चूंकि मैंने कभी ऐसा कहा था, इसलिए जीवन की धारा को वे न मोड़ेंगे। वे कहेंगे, उस क्षण जीवन की धारा पूरब की तरफ बहती थी और अब उसने एक मोड़ लिया और पश्चिम की तरफ बहने लगी। आप नदी से नहीं कहते जाकर-या गंगा से कहते हैं जाकर-कि तेरी चाल ठीक नहीं है, तेरा चाल-चलन ठीक नहीं है; कभी इस तरफ, कभी उस तरफ। अगर तुझे सीधा सागर ही जाना है तो स्ट्रेट, सीधा जाना चाहिए। कभी देखते हैं कि तू इस तरफ बह रही है, कभी देखते हैं उस तरफ बह रही है; तेरी चाल से पक्का पता नहीं चलता । कि तेरी दिशा क्या है। न, गंगा को कोई भी नहीं कहेगा कि तू धोखेबाज है। जहां धारा जाती है, जहां गड्डू मिल जाता, जहां द्वार मिल जाता, जहां राह बन जाती, नदी वहां बहती चली जाती है। कभी पूरब भी मुड़ती है, कभी पश्चिम भी मुड़ती है। कई धाराओं में कई दफे मोड़ लेती है, सागर पहुंच जाती है। सागर पहुंचना लक्ष्य भी नहीं है, यह सहज स्वभाव की अंतिम परिणति है। कोई ऐसा झंडा लेकर नहीं चली है गंगा कि सागर पहुंच कर रहेंगे! कि नहीं पहुंचे तो जीवन बेकार है! कि पहुंच गए तो कोई बड़ा उत्सव मनाना है! जैसे सागर की तरफ बहती हुई नदी की सहज धारा है ऐसे ही स्वभाव को उपलब्ध व्यक्ति की जीवन की सहज धारा होती है। 'श्रेष्ठ चरित्र वाला मनुष्य कभी कर्म नहीं करता; या करता भी है तो किसी बाह्य प्रयोजन से नहीं।' वह जो भी करता है, उसकी अंतर्भावना से, बाह्य प्रयोजन से नहीं। उसके कर्म बाहर से खींचे हुए नहीं हैं, भीतर से आविर्भूत हैं। 'घटिया चरित्र वाला व्यक्ति कर्म करता है; और ऐसा सदा किसी बाह्य प्रयोजन से करता है।' घटिया चरित्र वाला व्यक्ति हमेशा कर्ता बना रहता है, और जो भी वह करता है उसमें नजर रखता है कि बाहर क्या हो रहा है। भीतर क्या हो रहा है, इसकी उसे फिक्र ही नहीं है। और भीतर से ही जीवन का संबंध है; बाहर तो सब नाटक है, खेल है। घटिया चरित्र वाला व्यक्ति खेल को बड़ा मूल्य दे देता है। वह सदा देखता है: बाहर क्या हो रहा है, बाहर क्या परिणाम होगा; मैं ऐसा करूंगा तो ऐसा होगा; मैं ऐसा करूंगा तो ऐसा होगा। घटिया चरित्र वाला व्यक्ति शतरंज के खिलाड़ी की तरह है। वह पांच चालें आगे की सोच कर रखता है कि अगर मैं ऐसा चलूंगा तो दूसरा क्या करेगा, फिर मैं ऐसा करूंगा तो दूसरा क्या करेगा। शतरंज के जो बड़े खिलाड़ी हैं, अंतर्राष्ट्रीय, वे कहते हैं कि जो व्यक्ति पांच चालें एक साथ सोच लेता है, वही शतरंज में जीत पाता है। पांच चालों का हिसाब दिमाग में होना चाहिए-कम से कम। ज्यादा का हो सके, तब तो फिर उतनी कुशलता बढ़ती जाएगी। घटिया चरित्र वाला व्यक्ति जीवन को शतरंज का खेल समझ रहा है। वह अपनी पत्नी से भी बोलता है तो पहले से सोच लेता है कि मैं यह कहूंगा तो पत्नी क्या कहेगी, उसका उत्तर क्या देना है। उसके लिए जिंदगी एक अदालत है, आनंद नहीं है। वह पूरे वक्त लगा हुआ है कि कौन...मैं ऐसा कहूं, इसका यह परिणाम होगा। वह परिणाम को पहले से सोच कर, फिर कदम उठाता है। 162
SR No.002374
Book TitleTao Upnishad Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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