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ताओ उपनिषद भाग ४
हो गया। ऐसा जो मनुष्य है, जिसको ऐसा चरित्र उपलब्ध हो गया, वह कर्म नहीं करता, उससे कर्म होता है। यह फर्क समझ लेना चाहिए। वह कुछ करता नहीं। वह कुछ जान-बूझ कर करने नहीं जाता। अब उसको कोई जरूरत नहीं रही। अब तो उसकी भीतर की अंतरात्मा जो कराती है, वह होता है। अब जैसे परम नियति के हाथ में उसने अपने को सौंप दिया। अब जहां हवाएं उसे ले जाती हैं परमात्मा की, वह जाता है। वह अब यह भी नहीं पूछता कि क्या है दिशा? क्या है गंतव्य? क्या है लक्ष्य ? कहां तुम मुझे पहुंचाओगे? अब तो उसको कोई लक्ष्य नहीं है, कोई पहुंचने की जगह नहीं है। अब तो सहज होना ही, स्वाभाविक होना ही, स्व-स्फूर्त होना ही उसका भाग्य है।
तो वह जो भी करता है वह करना नैसे ही है जैसे वृक्षों पर पत्ते खिलते हैं। कोई नहीं कहेगा कि वृक्ष ने पत्ते खिलाए; कोई नहीं कहेगा कि वृक्ष ने फूल लगाए। क्योंकि कोई चेष्टा नहीं है। वृक्ष का स्वभाव है कि पत्ते लगते हैं, फूल खिलते हैं। वृक्ष बढ़ता है, आकाश में सुगंध फेंकता है। बस ऐसा ही चरित्रवान व्यक्ति है। उसके भीतर से भी जो होता है वह होता है। वह कोई चेष्टा ऊपर से नहीं करता।
मैंने सुना है, लाओत्से का एक भक्त लीहत्जू एक गांव से गुजर रहा था। लाओत्से के निकटतम पहुंचने वाले थोड़े से लोगों में लीहत्जू भी है। एक गांव से जब वह गुजर रहा था तो उसने देखा कि राजा के घुड़सवार उसके पीछे दौड़ते चले आ रहे हैं। वह अपने गधे पर सवार था। घड़सवारों ने उसे रोका। राजा का बड़ा मंत्री भी आया और उसने कहा कि सम्राट की आज्ञा है कि आप चलें और सम्राट के प्रधान सलाहकार आप हो जाएं। सम्राट को बड़ी उलझनें हैं, उन्हें हल करना है। लीहत्जू ने कहा, अगर कभी मेरे भीतर का सम्राट मुझे वहां ले आया तो मैं आ जाऊंगा, और दूसरा कोई उपाय नहीं है। नहीं लाया, नहीं आऊंगा। अब मैं नहीं हूं। अब वह भीतर वाला ही मुझे चलाता है।
वे राज्य मंत्री और उनके साथी, पता नहीं उसकी बात समझे या नहीं, लेकिन वे वापस चले गए। जैसे ही वे लौट गए वापस, लीहत्जू एक कुएं पर रुका और उसने अपने कान पानी से धोए। गांव के लोग इकट्ठे हो गए और उन्होंने कहा कि तुम यह क्या करते हो? तब लीहत्जू ने अपने गधे के कान भी पानी से धोए। तो उन्होंने कहा कि तुम बिलकुल पागल तो नहीं हो गए हो? लीहत्जू ने कहा कि सत्ता का शब्द भी कान में पड़ जाए तो करप्ट करता है, तो व्यभिचार पैदा होता है, इसलिए मैंने अपने कान धोए। पर लोगों ने कहा, इस गधे के क्यों धो रहे हो? उसने कहा, जब मुझे तक करप्ट करता है तो गधे की हालत! और गधे तो वैसे ही राजनीति में बड़े उत्सुक होते हैं। इसका तो दिमाग ही खराब हो जाएगा। इसने सुन ली है। यह बिलकुल कान खड़े किए हुए था जब वे लोग कह रहे थे। और मैंने इसके भीतर देख ली कि बिजली दौड़ रही थी और यह बिलकुल तैयार था। यह कह रहा था धीरे, लीहत्जू, हां भर दो। यह तो मुझ पर नाराज है कि कहां महल छोड़ कर, कहां गांव में और जंगलों में भटका रहे हो! इसके कान धो देना भी ठीक है, नहीं तो यह भी पाप मेरे ऊपर पड़ जाएगा।
एक्टन ने, लार्ड एक्टन ने कहा, पावर करप्ट्स, एंड करप्ट्स एब्सोल्यूटली; सत्ता व्यभिचारी है, और पूर्ण रूप से व्यभिचारी है। । लेकिन हम सब सत्ता की खोज में हैं। सत्य की खोज में नहीं हैं, शक्ति की खोज में हैं। उस शक्ति की खोज में हम जो चरित्र निर्मित करते हैं, वह धोखा है, प्रवंचना है। सत्य की जो खोज करता है उसके जीवन में एक चरित्र आना शुरू होता है। जैसे फूलों में सुगंध है, वैसा ही उसका जीवन होता है। उसमें कर्तृत्व खो जाता है; वह कुछ करता नहीं, उससे कुछ होता है।
झेन फकीर रिझाई कहा करता था कि बुद्ध को जब ज्ञान हुआ, उसके बाद उन्होंने कुछ भी नहीं किया। पर कहानी तो साफ है कि चालीस साल तक वे गांव-गांव गए, लोगों को समझाया, ज्ञान के लिए जगाया। न मालूम कितनों की प्यास तृप्त की। न मालूम कितनों में सोई प्यास को जगाया और अतृप्त किया। और न मालूम कितने लोग
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