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________________ ताओ उपनिषद भाग ४ 134 आप पूरी जिंदगी यही कर रहे हैं । एक त्वरा है, एक तेजी है। तेजी का कारण कोई लक्ष्य नहीं है। कोई लक्ष्य हो तो समझ में आता है। कहीं ऐसी जगह पहुंचना हो, जिसके लिए जीवन भी दांव पर लगाना हो, तो समझ में आता है। पहुंच रहे हैं सिर्फ अपने घर, जहां पहुंचने की कोई इच्छा भी नहीं है। मुल्ला नसरुद्दीन पूछ रहा था अपने एक मित्र से कि तू रात इतनी देर तक मधुशाला में रुक कर शराब क्यों पीता रहता है? क्या पत्नी बहुत कलह करने वाली है ? क्या घर जाने से डरता है? भयभीत है? उस आदमी ने कहा, मैं तो अविवाहित हूं। तो मुल्ला ने कहा, फिर पागल, शराब पीने की क्या जरूरत है? और यहां इतनी देर बैठने की क्या जरूरत है? हम तो विवाहित होने की वजह से यहां बैठे रहते हैं। और इतना पी लेते हैं, जब अपना होश ही नहीं रहता तो क्या गुजरती है घर जाकर... । जिस घर से आप भागते हैं सुबह तेजी से, उसी घर की तरफ तेजी से शाम को भागते हुए आते हैं। शायद आपकी तेजी का कुछ कारण और है। जहां आप पहुंचना चाहते हैं वहां पहुंचने की कोई इच्छा नहीं; लेकिन तेजी की कोई और मनोवैज्ञानिक व्यवस्था होगी भीतर। असल में, जितनी आप तेजी में होते हैं उतना स्वयं को भूलना आसान होता है। जितने धीमे चलते हैं उतने स्वयं की याद आती है। जितने आहिस्ता चलते हैं उतना खुद का पता चलता है। कि मैं हूं— और जिंदगी व्यर्थ जा रही है। तेजी में होते हैं धुआंधार, कुछ पता नहीं चलता। तेजी एक शराब है। स्पीड अल्कोहलिक है। जितनी तेजी में होते हैं। देखें, तेजी से चल कर देखें, आपको फिर अपना होश नहीं। इसलिए बुद्ध अपने भिक्षुओं को कहते थे, तेजी से मत चलना । बहुत आहिस्ता चलना। और सीमा बनाना, जहां तुम्हें अपना स्मरण भूलने लगे बस वही सीमा है। उससे कम । तेजी से मत चलना । आहिस्ता पैर रखना । धीमे जाना, ताकि तुम्हें अपना स्मरण न खोए । आदमी तेजी का उपयोग करता है अपने को भूलने के लिए। फिर हर चीज में तेजी हो जाती है। और आखिर में मौत के सिवाय कहीं पहुंचना नहीं है। जल्दी पहुंच जाते हैं थोड़ा; और क्या ? धीमे चलते, थोड़ी देर से पहुंचते । धीमे चलते, सौ साल जीते; जल्दी चलते हैं, साठ साल में समाप्त हो जाते हैं। मौत पर पहुंचना है, और मरना कोई चाहता नहीं, और बड़ी तेजी है। कहां जा रहे हैं? किससे मिलने की आकांक्षा है ? कौन है वहां मिलने को ? अगर लाओत्से की धारणा हमारे जीवन में आ जाए तो तेजी खो जाएगी। हम आहिस्ता चलेंगे, हम आहिस्ता जीएंगे, श्वास लेते हुए जीएंगे। कोई जल्दी न होगी, कोई भाग-दौड़ न होगी । लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि भौतिक सभ्यता खो जाएगी; भौतिक सभ्यता में जो रोग है, जो पागलपन है, वह खो जाएगा। बहुत सी चीजें खो जाएंगी। जैसे एक आदमी धन इकट्ठा करता जाता है । वह सोचता है कि भोगेंगे, कभी भोगेंगे। अभी है ही कहां जो भोगें? इकट्ठा करो। इकट्ठा करो। वह इकट्ठा करते-करते मर जाता है। क्योंकि धन कभी इतना नहीं होता कि इकट्ठा करने वाले को लगे कि पर्याप्त हो गया। पर्याप्त धन किसी के पास होता ही नहीं। राकफेलर के पास भी नहीं होता, मार्गन के पास भी नहीं होता, कार्नेगी के पास भी नहीं होता । पर्याप्त धन किसी के पास होता ही नहीं। क्योंकि धन की यह व्यवस्था है कि वह जितना भी हो, अपर्याप्त मालूम होता है। क्योंकि वासना से तुलना करते हैं हम धन की । वासना अंतहीन है, अनंत है । ब्रह्म के अनंत होने का तो हमें कोई पता नहीं, लेकिन वासना के अनंत होने का प्रत्येक को पता है। वासना अनंत है । और वासना के मुकाबले धन हमेशा छोटा पड़ता है— कितना ही हो । कार्नेगी दस अरब रुपया छोड़ कर मरा। मरते वक्त भी दुखी था, क्योंकि वह कह रहा था कि सौ अरब कमाने की मेरी इच्छा थी । दस अरब काफी रुपया है; लेकिन एंडू कार्नेगी के लिए नहीं, आपके लिए लगता है काफी। क्योंकि आपके पास दस ही रुपए हैं, दस अरब बहुत लगते हैं। आप दस रुपए से तौलते हैं दस अरब । एंडू कार्नेगी दस से नहीं तौलता,
SR No.002374
Book TitleTao Upnishad Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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