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________________ सहजता और सभ्यता में तालमेल तो दूसरे के प्रति घृणा में भी आपके भीतर के कुछ संबंध जुड़े हैं। असल में, हम दूसरे के प्रति जो भी करते हैं उसमें हम कुछ अपने प्रति करते ही हैं। हम अपने से मुक्त नहीं हो सकते। हमारे सारे कृत्यों में हम मौजूद होते हैं, वह चाहे घृणा हो और चाहे प्रेम हो। सारा व्यवहार हमारा दर्पण है जिसमें हम दिखाई पड़ते हैं। और अपने को धोखा देते रहते हैं हम जीवन भर। . अगर ठीक से आप अपने भीतर का परीक्षण करेंगे तो बहुत ही हैरान हो जाएंगे। और तब हर व्यवहार आपको जीवन-क्रांति के लिए इशारा करेगा। एक हमारी साधारण वृत्ति होती है कि हम, जो अपने भीतर है, उसे दूसरे को पर्दा मान कर प्रोजेक्ट करते हैं; उसमें देख पाते हैं। अपने में देखना तो मुश्किल होता है; दूसरे में देख पाते हैं। दूसरे में देखना आसान होता है, इसलिए दूसरा हमेशा दर्पण का काम करता है। जब आप दर्पण के सामने खड़े होते हैं तो अगर आपको दर्पण में कुरूप चित्र दिखाई पड़े तो दर्पण को तोड़ने की कोशिश मत करना, उससे कुछ लाभ न होगा। हालांकि दर्पण आप तोड़ सकते हैं। शायद पहला खयाल तो यही होगा कि यह दर्पण गलत ढंग से बना है, नहीं तो मेरा जैसा सुंदर व्यक्ति इतना कुरूप दिखाई कैसे पड़ सकता है! लेकिन दर्पण तोड़ने से आप सुंदर न हो जाएंगे। दर्पण तो केवल खबर दे रहा है कि आप कैसे हैं। लेकिन हम जैसे हैं वैसा देखने की हमारी हिम्मत नहीं होती। हम तो अपने मन में बड़ी स्वप्निल प्रतिमाएं निर्मित किए रहते हैं स्वयं की। हम तो अपने को परम सुंदर मानते रहते हैं। इसलिए दर्पण हमें दुख देता है, क्योंकि दर्पण हमें वहां ले आता है जहां हम हैं। दर्पण यथार्थ को प्रकट करता है। आपका व्यवहार जीवन का दर्पण है। दूसरे व्यक्ति दर्पण की तरह काम कर रहे हैं। पूरा समाज दर्पण है। और जब भी किसी व्यक्ति के पास आपको कुछ कुरूपता की प्रतीति हो तो उस पर मत थोपना; लौटना अपने पर। उसको दर्पण ही समझना और खोज भीतर करना। लेकिन स्वयं को तो कोई बदलना नहीं चाहता; सभी लोग दूसरों को बदलना चाहते हैं। ___ एक मित्र, रोज मैं निकलता हूं, रास्ते में मुझे मिलते हैं। वह कहते हैं, जो आपने कहा उसकी लोगों को बहुत जरूरत है। लोगों को! वे कौन हैं लोग? आप सब, उनको छोड़ कर। मगर यही दृष्टि आपकी भी है। उन पर हंसना मत। मैंने सुना है कि एक महिला एक चर्च में रोज आती थी और जब प्रवचन पूरा हो जाता चर्च के पादरी का तो उससे विदा लेते वक्त कहती थी : माय, सरटेनली दे डिड नीड दिस मैसेज टुडे; उनको जरूरत थी इस संदेश की जो आपने दिया। लेकिन एक दिन ऐसा हुआ कि बर्फ पड़ी और कोई भी नहीं आया; अकेली महिला ही आई। फिर भी पादरी ने प्रवचन पूरा किया। और जब महिला को द्वार पर वह छोड़ रहा था तो महिला ने कहा-पादरी सोच रहा था मन में कि आज वह क्या कहेगी! क्योंकि आज लोग तो आए ही नहीं थे, सोच रहा था कि आज वह कहेगी, क्या कहेगी! लेकिन महिला ने कहाः माय, दे सरटेनली वुड हैव नीडेड दिस मैसेज, इफ दे हैड कम टुडे; उनको बिलकुल जरूरत थी अगर वे आज आते। आपको स्वयं बिलकुल जरूरत नहीं, लोगों को जरूरत है। यही अधार्मिक चित्त का लक्षण है। धार्मिक चित्त सदा सोचता है कि मुझे क्या जरूरत है, और मैं अपने साथ क्या करूं! अधार्मिक चित्त सदा सोचता है कि दूसरों के साथ क्या किया जाए, दूसरे कैसे बदले जाएं। यह हिंसा का हिस्सा है। आप अपनी फिक्र करें। और जीवन बहुत थोड़ा है; आप अपनी ही फिक्र कर लें तो भी काफी है। आप लोगों की चिंता बिलकुल मत करें। और आपकी चिंता से लोगों को कोई लाभ होने वाला नहीं है। और वे लोग भी कुछ आपसे कम बुद्धिमान नहीं हैं। वे आपकी चिंता कर रहे हैं; वे अपनी चिंता नहीं कर रहे। इस जमीन पर कोई अपनी चिंता में नहीं है; सारे लोग दूसरों की चिंता में हैं : दूसरे कैसे सुधर जाएं। किसने दिया आपको यह काम दूसरों को 129
SR No.002374
Book TitleTao Upnishad Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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