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________________ विश्व-शांति का सूत्रः सहजता व सरलता किया। हम पागलपन को भी वंशानुक्रम से देते चले जाते हैं जो हम देखते हैं। कभी आपने खयाल नहीं किया, लेकिन आप खयाल करें कि जब आप अपनी पत्नी से व्यवहार करते हैं तो आप अपने पिता को पुनरुक्त तो नहीं कर रहे हैं! कि जब आप अपने पति से व्यवहार करती हैं तो आप अपनी मां को दोहरा तो नहीं रहीं। क्योंकि वह बचपन में जो देखा था, जिसमें हम बड़े हुए थे, वही हमारे पास एकमात्र माडल है; उसी के अनुसार चलना हमें रास्ता है। . करीब-करीब आप वही दोहराए चले जाते हैं, थोड़े-बहुत हेर-फेर के साथ। थोड़ा-बहुत हेर-फेर इसलिए आ जाता है कि जिंदगी में चारों तरफ थोड़े फर्क आते हैं। वे फर्क आपको थोड़ा हेर-फेर दे देते हैं। बाकी वही दोहरता चला जाता है। इसको हम प्रेम कहते हैं; इसको हम गृहस्थी कहते हैं; इसको हम घर कहते हैं; इसको हम परिवार कहते हैं। हम कहते हैं, परिवार स्वर्ग है। इसको भी दोहराए चले जाते हैं कि परिवार स्वर्ग है और इसको भी नहीं देखते कि परिवार बिलकुल पागलखाना हो गया है। अपने परिवार को नहीं देखते; परिवार स्वर्ग है, यह भी सुना हुआ है। और परिवार जो है वह भी हमें पता है। तो एक ही स्थिति रह जाती है भीतर, और वह यह कि कहने की बातें कुछ और हैं, असलियत कुछ और है। एक मेरे मित्र कार खरीदना चाहते थे। प्रोफेसर थे; गरीब आदमी। मुश्किल से पैसा इकट्ठा कर पाए थे। लेकिन पत्नी सख्त खिलाफ थी। कुछ ऐसा नहीं कि उसे कार से कोई दुश्मनी थी। पत्नी सख्त खिलाफ रहती थी पति जो भी करना चाहें उसके। उन्होंने मुझसे पूछा कि मैं क्या करूं? बामुश्किल तो पैसे इकट्ठा कर पाया हूं कि एक पुरानी गाड़ी खरीद लूं, लेकिन गाड़ी का नाम ही सुनते पत्नी आगबबूला हो जाती है। इतना उपद्रव मच जाता है कि मैं हिम्मत ही नहीं कर पाता कि गाड़ी कैसे खरीदूं।। मैंने उनसे कहा कि मैं तुम्हें तरकीब बताता हूं। तुम अभी घर चले जाओ। यह रही तरकीब। तरकीब मैंने उन्हें समझा दी। वे घर गए; उन्होंने जाकर शांति से घोषणा की कि गाड़ी मैंने खरीद ली है। उपद्रव शुरू हो गया। पत्नी तो भरोसा ही नहीं कर सकी-खरीद ली है। क्योंकि हमेशा वे पूछते थे कि खरीद लूं? खरीद ली! एकदम से सकते में आ गई। इससे बड़ा शॉक नहीं हो सकता था-उसकी बिना आज्ञा के! फिर उसने जो उपद्रव मचाया तो पूरा पागलपन। लेकिन कितनी देर कोई पागल रह सकता है? अब खरीद ही ली; आधा घंटे बाद वह शांत हो गई। वे मित्र मेरे पास आए। मैंने कहा, अब तुम जाकर खरीद लो। अब जो होना था वह हो चुका। जो आखिरी होना था हो चुका। अब और क्या बचा? अब तुम देर मत करो। और आगे के लिए इसको नियम समझो कि जो भी करना हो वह इस तरह किया करो। . हर घर में करीब-करीब कलह है, संघर्ष है। उस संघर्ष और कलह के बीच भी हम किसी तरह तालमेल बिठाए रखते हैं। जैसे एक ही बैलगाड़ी में दोनों तरफ बैल जोत दिए हों वैसी स्थिति बनी रहती है जिंदगी भर। थोड़ा इधर सरकते हैं, थोड़ा उधर; यात्रा कुछ नहीं होती, वहीं बने रहते हैं जहां के तहां। आखिर में इतना ही हो जाता है कि इस कशमकश में बैलगाड़ी के अस्थिपंजर सब ढीले हो जाते हैं। फिर जाने की इच्छा भी नहीं रह जाती। पर इसको हम जिंदगी मान लेते हैं, क्योंकि इसी से हम परिचित हैं, यही जिंदगी है। आदमी की जिंदगी क्या हो सकती है, इसका हमें पता ही नहीं। और आदमी की जिंदगी क्या हो गई है! अगर ये दोनों का खयाल भी हमें आ सके तो हम भयभीत हो जाएं, कंप जाएं। आदमी की जिंदगी एक बहुत अदभुत अनूठा अनुभव हो सकती है। लेकिन जो हो गया है वह एक लंबा दुख-स्वप्न, एक नाइटमेयर है। इस सारे दुख-स्वप्न के पीछे जो कारण है वह है हमारा निरंतर अप्राकृतिक होते चले जाना, जीवन की सहजता से धीरे-धीरे बिलकुल टूट जाना। सब असहज हो गया है। बोलते हैं, उठते हैं, बैठते हैं, करते हैं, लेकिन कहीं भी कोई साहजिकता नहीं है, कहीं कोई स्फुरणा नहीं है। हमारे प्राण से कुछ आता हुआ झरना नहीं मालूम होता। सब |117|
SR No.002374
Book TitleTao Upnishad Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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