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ताओ उपनिषद भाग ४
असफल हो जाते हैं। जो सफल होते हैं उनके बाबत किसी की बोलने की हिम्मत नहीं होती। जब तक हिटलर जिंदा था तो जर्मनी के एक मनोवैज्ञानिक ने नहीं कहा कि यह आदमी पागल है। जब मर गया और हार गया, पराजित हो गया, तो जर्मनी के ही मनोवैज्ञानिक कहने लगे कि यह पागल है। खुद हिटलर का चिकित्सक, जो तीस साल से हिटलर की सेवा में रत था, उसने भी कभी नहीं कहा कि यह पागल है। हिटलर के मरने और हार जाने के बाद उसने अभी किताब छापी कि मैं तो भलीभांति जानता था कि वह पागल है। निक्सन के संबंध में अभी कोई चिकित्सक यह नहीं कहेगा। माओ के संबंध में कोई चिकित्सक यह नहीं कहेगा। मरने के बाद, असफल हो जाने के बाद, जब कि कोई नुकसान नहीं पहुंचा सकता, तब बड़ी हैरानी की बातें मालूम होती हैं।
मुझे ऐसा लगता है कि स्टैलिन या हिटलर या मुसोलिनी या तोजो, ऐसा व्यक्तिगत पागल की बात ही गलत है। असल में, नेतृत्व पाने की जो आकांक्षा है, वह पागलपन का हिस्सा है। और अहंकार जड़ है पागलपन की। और राजनीति जितनी सुविधा से अहंकार को भरती है, और कोई चीज नहीं भर सकती। क्योंकि शक्ति वहां है। जहां शक्ति है वहां अहंकार को रस है, मजा है। सिंहासन वहां है। तो राजनीति में पागल ही उत्सुक होता है। और आज नहीं कल जब दुनिया थोड़ी शांत अगर कभी हो सकी, और राजनीति से हम थोड़ा छुटकारा पा सके, तो हम पाएंगे कि हमारा पूरा इतिहास पागलों की कथा है। कोई हिटलर और तोजो और स्टैलिन ही पागल हैं, ऐसा नहीं है। तब हम पाएंगे कि पूरा नेतृत्व हजारों वर्ष का, राजनीतिक नेतृत्व ही पागल था।
असल में, पागल ही महत्वाकांक्षी होता है। और जब पागल पद पर पहुंच जाता है तो उसके हाथ में ताकत होती है अपने पागलपन को पूरा करने की; फिर वह अपने पागलपन को पूरा कर लेता है। अगर वह सफल हो जाए तो उसकी प्रशस्ति में गीत लिखे जाते हैं। अगर वह असफल हो जाए तो लोग उसके विपरीत बातें करने लगते हैं। पांच हजार साल का यह जो इतिहास है, पागल लोगों के द्वारा समाज को बदलने की कोशिश का इतिहास है। उन्होंने पूरी जमीन को पागलखाना बना दिया है। लेकिन हमें दिखाई भी नहीं पड़ता कि जमीन पागलखाना बन गई। क्योंकि हम इसके आदी हैं, हम इसी के बीच बड़े होते हैं। हम देखते हैं यही शायद प्राकृतिक है।
यह बिलकुल प्राकृतिक नहीं है। यह ऐसा ही है जैसे एक बच्चा अस्पताल में पैदा हो और कभी बाहर की दुनिया उसे देखने न मिले। अस्पताल में ही बड़ा हो, अस्पताल ही उसकी एकमात्र जानकारी हो। तो वह समझेगा यही दुनिया है और लोगों का खाटों पर पड़े रहना, उनके टांगों का ऊपर लटके रहना, उनके हाथों में इंजेक्शन लगे रहने, उनके पास आक्सीजन की बोतल रखी रहनी; यही जिंदगी है। उसे कोई और जिंदगी का पता नहीं है। वह अस्पताल को ही जिंदगी समझेगा। और अगर वह जिंदगी भर वहीं रहे और फिर अचानक एक दिन बाहर लाया जाए तो वह बहुत हैरान होगा कि ये लोग सब क्या कर रहे हैं! ये सब गड़बड़ हो गए हैं। इनकी खाटें कहां हैं? इनके इंजेक्शन कहां हैं? इनकी बोतलें कहां हैं? इनको अपनी-अपनी जगह पर होना चाहिए; सब अस्तव्यस्त हो गया है, यह सब अराजकता फैली हुई है। स्वभावतः, क्योंकि उसके सोचने का ढंग, उसका तर्क, उसके मन की बनावट, उसका संस्कार जैसा है वैसा। जिस दुनिया को अभी हम कहते हैं दुनिया, यह करीब-करीब पागलखाना है। इसमें हमें दिखाई नहीं पड़ता, क्योंकि हम इसी में पैदा होते हैं, इसी में बड़े होते हैं। हम इसी से परिचित हैं।।
बच्चा बड़ा होता है, वह देख कर बड़ा होता है कि मां और बाप उसके लड़ रहे हैं, लड़ रहे हैं, लड़ रहे हैं। वह इसी को प्रेम मानने लगता है कि यह प्रेम है। वह देखता है घर की राजनीति, वह देखता है कि मां पिता को दबा रही है, पिता मां को दबा रहा है। वह चौबीस घंटे देखते-देखते, देखते-देखते, इसी में बड़ा होता है। फिर जब वह शादी करता है तो उसी कहानी को दोहराता है जो उसने देखी थी। क्योंकि और उसे कुछ कहानी का पता भी नहीं है कि कोई और भी ढंग होता है। यही जिंदगी है। यही उसके बच्चे करेंगे। यही उसके बाप-दादों ने किया, उनके पहले
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