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ताओ उपनिषद भाग ४
भी बेबूझ ध्वनियां आने लगे, वही प्रार्थना है। आपको हुंकार आए तो हुंकार करें, चीख आए तो चीख करें, पुकार आए तो पुकार करें; लेकिन भाषा का भर उपयोग न करें। जैसे छोटे-छोटे बच्चे अनर्गल बकते हैं, बेबी लैंग्वेज, कुछ भी धुन बन जाती है उनको, तुक बन जाती है, तो वही कहे चले जाते हैं। बस वैसा। आप चकित हो जाएंगे कि इस प्रार्थना में आपकी बुद्धि नहीं बोलती; आपका हृदय, आपका शरीर, आपकी प्रकृति बोलने लगती है। कई बार आप पशु-पक्षियों जैसी आवाज करने लगेंगे। वह भी आपको नहीं करनी है; वह भी होने देना है। कुछ न हो तो शांत बने रहना है। तब समझना है कि शांति ही इस क्षण प्रार्थना है। कुछ हो तो उसे होने देना है। अपनी तरफ से रोकना नहीं, अपनी तरफ से पैदा नहीं करना; सिर्फ निष्क्रिय बहाव में अपने को छोड़ देना है जो भी हो।
अनूठे, अदभुत परिणाम होते हैं। एक घंटे की ऐसी प्रार्थना आपको इस तरह हलका कर जाएगी कि जैसे कोई वजन नहीं रहा शरीर में। जब आप इस मंदिर के बाहर आएंगे तो आप आदमी ही दूसरे होंगे। आपकी आंखें उसी सूरज को देखेंगी जिसको आपने जाते वक्त देखा था, लेकिन अब उसकी रौनक ही और है। वे ही वृक्ष, वे ही पक्षी। लेकिन अब आप हलके हैं, और भाषा का बोझ गिर गया। अब आप हार्दिक हैं, बौद्धिक नहीं हैं। अब आप ज्यादा प्राकृतिक हैं। अब आपने मनुष्य की शिक्षा का जो भी जाल था वह तोड़ दिया थोड़ी देर के लिए, और आप पहली दफा प्रकृति के विराट में गिर गए। आप फिर से छोटे बच्चे हो गए हैं। वह जो शिक्षित, कल्टीवेटेड, सुसंस्कृत आदमी था वह हट गया। आप छोटे बच्चे हो गए हैं। इस प्रार्थना का तो कोई मूल्य है, क्योंकि यह नैसर्गिक है। प्रार्थना करें मत, होने दें। पूजा करें मत, होने दें। निश्चित ही कठिनाई होगी। क्योंकि हम तो सब चीजों को बांध कर चलते हैं। पूजा, प्रेम, प्रार्थना, सबको हमने व्यवस्था दे रखी है कि ऐसा करो, ऐसा करो।
रामकृष्ण को उनके मंदिर के लोग निकालने को राजी हो गए थे पुजारी के पद से। रामकृष्ण जैसा पुजारी कभी हजारों साल में मिलता है। लेकिन सोलह रुपए महीने तो कुल तनख्वाह देते थे, और फिर भी कमेटी इकट्ठी हो गई मंदिर की, ट्रस्टियों की, और उन्होंने कहा, इस आदमी को निकाल बाहर करो, क्योंकि इसकी पूजा में ढंग नहीं है। स्वभावतः इसकी पूजा बेढंगी है। यह आदमी तो मंदिर को अपवित्र कर देगा! क्योंकि ऐसी-ऐसी खबरें आई हैं कि भोग लगाने के पहले खुद चख लेता है। खराब हो गया सब। भ्रष्ट हो गई बात। फूल चढ़ाने के पहले खुद सूंघता हुआ देखा गया है। और कोई ढंग ही नहीं है। कभी चार घंटे भी चलती है पूजा; कभी होती ही नहीं। कभी सुबह होती है; कभी सांझ होती है। तो यह आदमी कोई पुजारी नहीं है। इसको हटाओ, यह तो पागल है।
रामकृष्ण से पूछा ट्रस्टियों ने। तो उन्होंने कहा कि जिस दिन होती है उस दिन होती है और जिस दिन नहीं होती उस दिन नहीं होती। मैं कोई करने वाला नहीं हूं। होगी तो हो जाएगी। जब वही चाहता है कि हो पूजा तो होती है; जब वही नहीं चाहता तो हम कौन हैं? हम बीच में आने वाले कोई भी नहीं हैं। रही फूलों की बात, तो बिना सूंघे मैं नहीं चढ़ा सकता। पता नहीं, सुगंध है भी कि नहीं? रही भोग की बात, तो बिना चखे मेरी मां मुझे नहीं खिलाती थी तो मैं भी नहीं खिला सकता। नौकरी तुम अपनी सम्हाल सकते हो। लेकिन जैसा होता है वैसे ही होगा।
फिर कमेटी को तरकीब निकालनी पड़ी। आदमी तो यह कीमती था। तो एक दूसरा पुजारी रखना पड़ा कि इसको करने दो जो यह करता है, और व्यवस्थित पूजा जारी रहनी चाहिए। नहीं तो सब गड़बड़ हो जाएगा। तो एक दूसरा पुजारी व्यवस्थित पूजा करता था; रामकृष्ण अव्यवस्थित पूजा करते थे।
ताओ का आग्रह है एक ही कि कर्ता को बीच में मत लाओ जीवन के, तब तुम्हारा जीवन निसर्ग के अनुकूल हो जाएगा। नहीं कि कठिनाइयां न होंगी। कठिनाइयां होंगी, लेकिन उनमें भी आनंद होगा। और अभी हो सकता है, कठिनाइयां न भी हों, बड़ी सुविधा हो। लेकिन सुविधा भी नरक हो जाएगी। झूठी सुविधा भी नरक है। सच्ची कठिनाई भी स्वर्ग है। सचाई के साथ आनंद का संबंध है; झूठ के साथ आनंद का कोई संबंध नहीं है।
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