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ताओ उपनिषद भाग ४
अहंकार का न तो विनाश किया जा सकता, न अहंकार का त्याग किया जा सकता, न अहंकार को काट-छांट कर विनम्र बनाया जा सकता। क्योंकि अहंकार कर्ता का भाव है। लाओत्से कहता है, अगर यह समझ में आ जाए कि जीवन की लीला अपने से चल रही है, बिना किसी कर्ता के, अगर आपको अपने भीतर भी यह समझ में आ जाए कि सब हो रहा है, करने का कोई सवाल नहीं है, तो अहंकार निर्मित ही न होगा; त्याग करने का सवाल नहीं आएगा। त्याग करने का सवाल तो तब आता है जब अहंकार निर्मित हो जाए। और निर्मित अहंकार को त्याग करना असंभव है। यह संभव है कि उसे निर्मित न होने दिया जाए। यह संभव है कि उसे भोजन न दिया जाए। यह संभव है कि उसके बनने की प्रक्रिया समझ ली जाए और उस प्रक्रिया से बच जाया जाए, लेकिन बने हुए अहंकार को मिटाना मुश्किल है, क्योंकि मिटाना फिर कृत्य है। और कृत्य से ही अहंकार मजबूत होता है।
इसलिए संसारी का अहंकार होता है; संन्यासी का अहंकार होता है-संसारी से भी ज्यादा सूक्ष्म और ज्यादा विषाक्त। भोगी का अहंकार होता है, लेकिन योगी के अहंकार का कोई मुकाबला नहीं है। साधारणजन का अहंकार होता है, असाधारणों का अहंकार होता है। लेकिन असाधारणजनों का, साधुओं का अहंकार बड़ा सूक्ष्म, दिखाई भी नहीं पड़ता। लेकिन उसकी धार बड़ी पैनी है। देखें महात्माओं के आस-पास तो वह दिखाई पड़ जाएगा, जरा पैनी आंखें देखने को चाहिए पड़ेंगी।
अभी मैं पढ़ रहा था किसी का संस्मरण। एक पंडित एक जैन मुनि के पास गया। उन मुनि की बड़ी प्रतिष्ठा थी। वह पंडित उनके जीवन पर एक किताब लिखना चाहता था। तो पंडित ने मुनि को कहा कि मुझे आज्ञा दें कि मैं आपका जीवन-चरित्र लिखू और आशीर्वाद दें कि मैं इसमें सफल हो जाऊं। जैन मुनि ने कहा, मुझे प्रशंसा की कोई भी जरूरत नहीं है, मुझे प्रशस्ति की कोई भी जरूरत नहीं है, मुझे ख्याति का कोई लोभ नहीं। पंडित बहुत प्रभावित हुआ कि कितने विनम्र व्यक्ति हैं! न ख्याति की कोई जरूरत है, न लोग जानें इसकी कोई जरूरत है।
लेकिन जो स्वर है, अगर उसे थोड़ा गौर से देखें, तो वह अहंकार का स्वर है। मुझे प्रशंसा की कोई जरूरत नहीं है। मुझे ख्याति का कोई लोभ नहीं है। यह जो मैं खड़ा है पीछे, यह सूक्ष्म है। यह एकदम से पहचान में नहीं आएगा। लेकिन किसे प्रशस्ति की जरूरत नहीं है? वह कौन है जो कहता है कि मुझे ख्याति की जरूरत नहीं है? '
तो एक दफे मैं कहता है कि मुझे ख्याति की जरूरत है; वह संसारी का मैं है। फिर एक बार मैं कहता है कि मुझे ख्याति की कोई जरूरत नहीं है; यह संन्यासी का मैं है। और दूसरा मैं ज्यादा खतरनाक है। क्योंकि जिस मैं को ख्याति की जरूरत है, वह अभी बहुत बड़ा मैं नहीं। अभी अधूरा है, भरा नहीं है; खाली है, कुछ जरूरत है। और जिस मैं को ख्याति की बिलकुल जरूरत नहीं है, वह कह रहा है यह कि दो कौड़ी की है तुम्हारी ख्याति; तुम्हारा यश, तुम्हारा गुणगान दो कौड़ी का है। मैं लात मारता हूं उसे, मुझे उसकी कोई भी जरूरत नहीं है। मैं वहां हं जहां तुम्हारी ख्याति मुझे नहीं छू सकती।
यह बहुत सूक्ष्म है, और इसे देखने के लिए बहुत बारीक दृष्टि चाहिए। लेकिन इसे पहचानना मुश्किल होता है। क्योंकि स्थूल अहंकार को तो हम जानते हैं, सब परिचित हैं; सूक्ष्म अहंकार को हम जानते नहीं हैं।
लेकिन यह क्यों घटता है? यह इसीलिए घटता है। इस मुनि को क्यों यह सूक्ष्म अहंकार होगा? क्योंकि ये मुनि अहंकार को छोड़ने की कोशिश में लगे हैं; यह उसका परिणाम है-ख्याति की जरूरत नहीं है! ख्याति की जरूरत है तो भी बात वही है, और ख्याति की जरूरत नहीं है तो भी बात वही है। जब अहंकार नहीं होगा तो दोनों जरूरतें विदा हो जाएंगी। न तो ख्याति की जरूरत होगी; और न ही ख्याति की जरूरत नहीं है, यह जरूरत होगी। दोनों नहीं रह जाएंगी। क्योंकि फिर कुछ होता नहीं मेरे से; कर्ता नहीं हूं मैं। फिर जो हो रहा है प्रवाह में, उसको देख रहा हूं, द्रष्टा हूं। फिर निंदा होती है तो उसे देखता हूं; और ख्याति होती है तो उसे भी देखता हूं। फिर निंदा कोई कर
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